कक्षा एक में हिंदी
की किताब 'औ' से औरत पढ़ाते हुए "औरत ममता की मूरत है, भोली-भाली सूरत है” के
जरिये स्त्री को एक रूढ़ छवि में कैद करती हैं. आगे सभी कक्षा स्तरों पर हिंदी की
किताब इसी परिपाटी का निर्वाह करती हैं या इससे आगे बढ़ कर कई जगह स्त्री विरोधी भी
हो गयी हैं. यह परिपाटी कैसे उत्तरोत्तर बढ़ती है इसे कुछ ख़ास पाठों का विश्लेषण
करते हुए समझा जा सकता है.
कक्षा दो में एक पाठ
है "स्नान" इसमें दो जगह लडके और लड़की नहाने के लिए सर पर पानी गिराते
हुए दिखाया गया है और दोनों दृश्यों में लड़की ने पूरे वस्त्र पहने हुए हैं, जबकि लड़का
महज एक अंतर वस्त्र में शरीर पोंछ रहा है या नहा रहा है. यानि यह किताब कक्षा दो
से ही लड़कों और लड़कियों को यह समझा देना चाहती हैं कि लड़की कि देह को हमेशा छुपा –
ढंका होना चाहिए.
कक्षा तीन में सड़क
की आत्मकथा पर बात करते हुए किताब सड़क का मानवीकरण करते हुए उसके माथे पर बिंदिया
लगा देती है. सड़क जो यह बताती है कि वह सबकी सहायता करती है, सड़क कहती है, "गाय,
भैंस, बैलों के झुण्ड जब मेरे ऊपर से गुज़रते हैं तो मैं अपना दुःख-दर्द भूल जाती
हूँ." यानि सड़क का स्वभाव है कि सबके सुख-दुःख में शामिल होना और सबको अपनी
मंजिल तक पहंचाना. और ऐसी सड़क को यदि मानवीय रूप दिया जायेगा तो उसे स्त्री की तरह
ही दर्शाया जा सकता है. हिंदी भाषा में दो ही लिंग से सभी वस्तुओं को संबोधित किया
जाता है, उस लिहाज से सड़क अपने लिए स्त्रीलिंग शब्दों का उपयोग करती है, लेकिन
चित्रों में उसे बिंदी लगी हुई रूढ़ स्त्री छवि से जोड़ना और सब कुछ सहते जाने का
भाव स्त्री की रूढ़ छवि को मजबूती प्रदान करता चला जाता है.
कक्षा पाँच में पाठ "मेहनत
की कमाई" पाठ में पिता अपने बेटे को अपनी मेहनत से पैसा कमाने के लिए भेजता
है लेकिन एक दिन माँ और दूसरे दिन बहन उसे पैसा दे देती हैं, जिसे बेटा पिता के
कहने पर कुँए में फेंक आता है. आखिर पिता माँ और बहन को बाहर भेज देते हैं और तब
बेटे को खुद मेहनत कर कमाना पड़ता है, जिसे वह कुएँ में नहीं फेंकता. इसके बाद
पिता बेटे को कारोबार सौंप देता है. यह पाठ भी इसी तरह का सन्देश देता है कि माँ
और बहन के पास दूरदृष्टि और किसी काम के पीछे के उद्देश्य को देखने वाली दृष्टि का
अभाव है. और पिता के कारोबार का उत्तराधिकार बेटे को ही मिलता है.
स्त्री पुरुष की
अनुगामी है इसकी झलक जगह-जगह पर अभ्यास के प्रश्नों में भी मिलती है, जैसे कक्षा 2
में पाठ 11 "शेर और चूहा" के साथ दिया गया अभ्यास का प्रश्न है "जैसे
आउंगा से आउंगी बना. इसी तरह आप भी नीचे दिए गए शब्दों से नये शब्द बनाएं – खाउंगा,
चलूँगा, नाचूँगा, करूंगा... " इससे बच्चों को यह समझ आता है कि भाषा में मूल
क्रिया पुरुषवाचक होती है और स्त्री वाचक क्रियाएँ उसी से निर्मित होती हैं. इसी
का एक और नमूना देखा जा सकता है कक्षा 6 में पाठ "गुलाब सिंह" में. इस
पाठ में बहन और माँ के प्रेम की बातें हैं. उनके बाद एक कौमी जुलूस में जब बहन
भागीदारी करना चाहती है तो भाई उसे रोक देता है. वह बहन से राजकुमार की तरह तिलक
करवा कर झंडा उठा कर चल पड़ता है. इस पाठ में भी जुलूस का मकसद, बादशाह के अत्याचार
के कोई आधार नहीं है, सिर्फ एक उन्माद सा नज़र आता है जिसके लिए भाई जुलूस और झंडा
ले कर चल पड़ता है और उसी तरह के उन्माद के साथ इसे मार दिया जाता है. जब भाई मर
जाता है तो वही झंडा बहन उठा कर चल पड़ती है. यानि प्राथमिक तौर पर भाई निकलता है,
लेकिन यदि भाई को मार दिया गया है तो उसके मकसद को बहन आगे ले जाती है. वह न अपना
निर्णय खुद ले सकती है न ही प्राथमिक तौर पर नेतृत्व करना उसका काम माना गया है. यह कहानी सुभद्रा कुमारी चौहान की है, लेकिन बड़े लेखकों की खराब रचनाओं का चयन इन
किताबों की एक प्रमुख विशेषता नज़र आती है.
कक्षा 8 की किताब में पाठ है प्रेमचंद की लिखी कहानी है "सुभागी". सुभागी कम उम्र में
विधवा हो जाती है. लोग उसके दूसरे विवाह की बात करते हैं. 'हरिहर ने सुभागी को समझा
कर कहा, "बेटी हम तेरे भले के लिये ही कहते हैं. माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं,
उनका क्या भरोसा. तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी." इस कहानी को एक लड़की की
हिम्मत की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो विधवा हो जाने के बाद
पिता के घर लौट आती है और घर-बाहर के सारे काम-काज संभाल लेती है, लेकिन अपने कलेवर में
यह कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों की रूढ़ छवियों को ही पुनःस्थापित करती है.
जैसा कि सामान्यतः
सभी पाठों में है यह कहानी भी विषय-वस्तु के स्थूल पक्षों में ही उलझ कर रह जाती
है. कहानी में अनेक ऐसे अवसर हैं जो पित्रसत्तात्मक समाज की संरचना पर सवाल उठा
सकते हैं. लेकिन पाठ उन सारे सवालों से बचते हुए सुभागी, तुलसी महतो और सजन सिंह
को महान साबित करने के खर्च हो जाता है और सुभागी का भाई बेवजह खलनायक बन कर रह
जाता है. इस तरह एक कहानी जो वृहत्तर प्रश्नों की तरफ के जाई जा सकती थी वह सतही
घटनों का ब्यौरा मात्र बन कर रह गयी.
पति की मृत्यु के
बाद सुभागी को माता-पिता के घर क्यों लौट आना पड़ा? सुभागी से हरिहर ऐसा क्यों कहते
हैं कि " माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं, उनका क्या भरोसा. तुम इस तरह कब तक बैठी
रहोगी". सुभागी के पिता मृत्यु के समय सजन सिंह से ऐसा क्यों कहते हैं कि "सुभागी के
पिता अब तुम्हीं हो. उसे तुम्हें ही सौंपे जा रहा हूँ." यह कहानी एक तरफ औरत की 'त्याग, बलिदान और ममता की मूरत की छवि को पुख्ता करती है. दूसरी तरफ अंततः स्त्री को किसी न किसी
पालनकर्ता कि ज़रुरत है, वह पिता, भाई, पिता का मित्र या पति ही हो सकता है. कहानी
प्रेम, सम्मान और त्याग के मुल्लमे चढ़ा कर औरत कि परम्परागत रूढ़ छवि को ही पुख्ता
करती है. सुभागी स्वाभिमानी है लेकिन अपने हक की बात कहीं नहीं करती, न अपने पिता से
और न ही पति के घर में. और इस स्वाभिमान और श्रम का पुरस्कार यह है कि पिता समान
सजन सिंह उसे अपने बेटे कि बहु बनाने में सम्मानित महसूस करते हैं, चारों ओर से
सुभागी के लिए शादी के पैगाम आने लगते हैं. इस तरह यह कहानी स्त्री की सशक्त छवि
गढ़ने में मदद करने की बजाय उसे परम्परागत छवि में ही कैद करती है.
कहानी में आतंरिक असंगतियों
की भी भरमार है. एक तरफ "सुभागी ने न जाने कैसे इतने रूपए जमा कर लिए थे. जब
तेरहवीं का सामान आने लगा तो लोगों कि आँखें खुल गयीं." और कुछ ही देर के बाद
सुभागी सजन सिंह से पूछती है कि कुल कितने रुपये खर्च हुए और वह उन रुपयों कि
देनदार बन जाती है. यह दोनों बातें परस्पर असंगतिपूर्ण हैं. यदि रुपये सुभागी ने
जमा किये थे तो उसे सजन सिंह को कर्ज चुकाने की क्या आवश्यकता थी.
इतना ही नहीं कहानी
और कई रूढ़ियों को बढ़ावा देती है, जैसे तेरहवीं पर होने वाला भोज, मृत्यु के समय
गोदान की इच्छा आदि की बातें इस कहानी में है. कहानी के देशकाल, परिस्थति के सापेख्स कुछ घटनाएं उसमे समाहित हो सकती हैं, लेकिन यदि आज उस कहानी का उपयोग पाठ्य पुस्तक में किया जाता है तो समकालीन सन्दर्भों में उस पर प्रश्न उठाए जाने की ज़रुरत है. जिस समय में प्रेमचंद ने इस
कहानी को लिखा वह समय ऐसा था जब विधवा विवाह का निर्णय समाज की रूढ़ियों को तोड़ने
वाला निर्णय था. आज हालात बदल गये हैं. आज भी कुछ समाजों में विधवा विवाह पर उस
तरह की पाबंदियां मौजूद हैं, लेकिन कानून ने औरतों को पिता और पति की संपत्ति में बराबर का हक़दार माना है. प्रेमचंद की ऐसी
अनेक कहानियां हैं जो इससे कहीं आगे की बात करती हैं. यदि इसी कहानी को चुना भी
जाना था तो अभ्यास के जरिये उन तमाम रूढ़ियों पर प्रश्न उठा सकते थे, वैसा भी कोई
प्रयास यह पाठ नहीं करता. प्रेमचंद ने इससे बहुत बेहतर साहित्य लिखा है, और किसी
भी महान रचनाकार की सारी रचनाएं एक जैसी स्तरीय होंगी ऐसा नहीं होता है. पाठ्य
पुस्तक के लिए रचना का चयन करते समय उसके भाषा-शैली और विषय वस्तु का महत्त्व बढ़
जाता है. इस कहानी के चयन के उद्देश्य स्पष्ट नहीं होते हैं. प्रेमचंद जो अपने समय
से आगे की बात करते थे, आज करीब सौ साल बाद उनकी इस तरह की रचनाओं को उपयुक्त
सन्दर्भ का निर्माण किये बिना प्रस्तुत करना उनकी रचनाधर्मिता का भी उचित सम्मान
नहीं कहा जा सकता.
अकसर ही पाठों में
महिलाओं का ज़िक्र उनके पति या पुरुष संबंधियों के सन्दर्भ में ही आता है. कक्षा 8
की ही किताब में एक पाठ हैं "संत कंवरराम". यह पाठ अंधविश्वास, चमत्कार और
पाखण्ड को तो बढ़ावा देता ही है, स्त्रियों के प्रति भी इसका नजरिया बहुत संकीर्ण
है. इसकी भाषा के अनुसार स्त्री पुरुष कि अनुगामी और कोख है. संत कंवरराम का विवाह
1903 में हुआ. पहली पत्नी काकनि बाई उनके जीवनादर्शों से प्रभावित हो कर समाज सेवा
में संलग्न हो गयी. उनकी 'कोख' से एक पुत्र और दो पुत्रियों ने जन्म लिया. 1929 में निमोनिया
से उनकी मृत्यु हो गयी. दो वर्ष के बाद 1931 में दूसरा विवाह गंगा बाई से हुआ और
उनकी 'कोख' से भी तीन संताने हुई. सवाल यह है कि 1885 में पैदा हुए इन संत की उम्र
लगभग 46 वर्ष रही होगी जब इन्होने दूसरा विवाह किया और इसके बाद तीन संतानों को
जन्म देने वाली गंगा बाई क्या इनकी हमउम्र रही होंगी. उपलब्धियों के नाम पर गोदी
में लेकर मृत शिशु को जीवित कर देने वाले इन चमत्कारी संत की कथा बच्चों के किन
भाषाई कौशलों का विकास करती है या शैक्षिक लक्ष्यों को हासिल करने में योगदान करती
है. यादि कंवराराम का और किसी तरह का सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान था तो इस पाठ से
उसका पता नहीं चलता.
जैसलमेर की
राजकुमारी पाठ में राजकुमारी कहती है "मैं स्त्री हूँ पर अबला नहीं हूँ.
मुझमें मर्दों जैसा साहस और हिम्मत है. मैं और मेरी सहेलियां देखने भर की
स्त्रियाँ हैं." यानि साहस और हिम्मत मूलतः मर्दों के गुण हैं, लेकिन जैसलमेर
की राजकुमारी और उनकी सहेलियां देखने भर की स्त्रियाँ है, बाकि तो वे मर्दाने
गुणों से युक्त हैं. एक तो इन किताबों में साहस सिर्फ युद्ध के क्षेत्र में काम
आने वाला कोई गुण है, जीवन में और कहीं इनके अनुसार साहस कि ज़रुरत नहीं होती.
दूसरे यह मूलतः मरदाना गुण है और जहाँ कोई कोई स्त्री साहसी नज़र आती है तो वह
स्त्रियों में अपवादस्वरूप ही है. इसकी बानगी सुभागी में भी बार-बार मिलती है कि
दरअसल सुभागी जो सब करती है वह अपवादस्वरूप ही करती है. इस पाठ में उसे और सीधे
शब्दों में रेखांकित कर दिया गया है.
स्त्री के प्रति यही
नजरिया कक्षा 7 के पाठ 13 "भारत की मनस्विनी महिलायें" में भी स्त्री कि
इसी रूढ़ छवि को स्थापित किया गया है. दादाजी पत्र के माध्यम से अपनी पोती किरण को
कहते हैं "तुम मनस्विनी महिलाओं के बारे में जानोगी, तो उनके सद्गुण अनायास
तुम्हारे मन में आ जायेंगे. तुम्हारे जीवन में उनके क्रमशः समावेश से तुम्हारे
उज्जवल भविष्य का पथ स्वतः प्रशस्त हो उठेगा." यह पाठ महिलाओं का अतिरेकपूर्ण
महिमामंडन करते हुए कहता है "त्याग, तपस्या, शौर्य, उदारता, भक्ति, वात्सल्य,
जन्मभूमि प्रेम तथा आध्यात्म चिंतन से सुधि समाज के सम्मुख उच्चादर्श प्रस्तुत
करती आ रही हैं." इसे आगे बढ़ाते हुए वे पाठ में आगे कहा गया है "नारी ने
ही पुरुष को गृहस्थ और किसान बनाया." इस तरह की भाषा के द्वारा स्त्री का
महिमामंडन करने के बहाने यह पाठ स्त्री की भूमिका को पुरुष के सापेक्ष स्थापित
करता है और उसकी भूमिका को घर-परिवार की चहारदीवारी में कैद और रूढ़ करता जाता है.
इसका विस्तार पुनः हिन्दू मिथकीय पात्रों कि स्थापित करने के रूप में होता है. यह
सारे पात्र गौरी "पार्वती, जिसने हिमाचल के घर में जन्म लिया और पति रूप में
शिव कि प्राप्ति के लिए घोर ताप किया था. ... पार्वती नारी जाती का प्रतिनिधित्व
करती है." इसी तरह सावित्री, माता अनुसूया, मारा मदालसा, गार्गी और मैत्रेयी,
राजा दशरथ की रानी कैकेयी, सीता, रानी भवानी, अहल्याबाई, लक्ष्मी बाई, रामकृष्ण
परमहंस कि पत्नी शारदा माई पर आ कर रुक जाता है. स्त्री छवि को रूढीबद्ध करने वाले
और हिन्दू परंपरा को बढ़ावा देने वाला यह पाठ भी शिक्षा के उद्देश्यों, समावेशी
शिक्षा और संविधान के मूल्यों के विरुद्ध नज़र आता है. इन महिलाओं के सन्दर्भ में
दादाजी का यह कहना कि हैं "तुम मनस्विनी महिलाओं के बारे में जानोगी, तो उनके
सद्गुण अनायास तुम्हारे मन में आ जायेंगे. तुम्हारे जीवन में उनके क्रमशः समावेश
से तुम्हारे उज्जवल भविष्य का पथ स्वतः प्रशस्त हो उठेगा." इस किताबों को
पढ़ने वाली बालिकाओं पर भी एक खास तरह ही भूमिका को स्वीकाराने का नैतिक दबाव बनता
हुआ सा नज़र आता है, जो उनके समानता के मौलिक संवैधानिक अधिकार का हनन करता है. पाठ
के अंत में सूक्तिवाक्य है "एक नारी कि ज़िन्दगी वत्सलता का इतिहास है"
यह पुनः उसी मूल्यबोध को स्थापित करता है.
स्त्री के प्रति यह
नजरिया कक्षा 1 में शुरू होता है जिसमें औ से औरत पढ़ाते हुए उसे ममता की मूरत
बताया है "औरत ममता की मूरत है, भोली-भाली सूरत है". यह भोली-भाली सूरत,
ममता की मूरत आगे चल कर इन कहानियों में त्याग, बलिदान की मूर्ति बनती जाती है.
स्त्री के प्रति इस
नज़रिए का वीभत्स उदाहरण देखने को मिलता है कक्षा 6 की किताब मुंडमाल में. सरदार
चुंडावत, जिनकी उम्र खुद 18 वर्ष से कम है, युद्ध में जाने को तैयार खड़े हैं तभी
झरोखे में खडी अपनी नवोढ़ा पत्नी पर उनकी नज़र पड़ती है. हाडा वंश की सुलक्षणा, सुशीला और
सुन्दर सुकुमारी कन्या – यानि तमाम विशेषणों के बावजूद अब तक इस स्त्री का नाम
नहीं बताया गया है. इसी तरह "रूपनगर के राठौड़ वंश की राजकुमारी" का भी
कोई नाम नहीं हैं. इस राजकुमारी की रक्षा के लिए जाने वाले सरदार चुण्डावत का अपनी
रानी को देख कर चित्त चंचल हो रहा है. अंततः हाड़ी रानी अपना सर कलम कर सरदार को भेंट
कर देती है ताकि सरदार उसके 'तुच्छ शरीर' से ध्यान हटा कर युद्ध में ध्यान दे सकें.
एक तरह यह कहानी हर लिहाज से आपत्ति जनक है. इसमें व्यक्त भावनाएं छठी कक्षा के
बच्चों की उम्र और समझ के स्तर के लिहाज से सर्वथा अनुपयुक्त हैं. इस पाठ में
सतीत्व का महिमामंडन है जो सती कानून का खुला उल्लंघन है. इस विषयवस्तु को कक्षा
6 की किताब शामिल करना पाठ्यचर्या में बताये गए शैक्षिक सिद्धांतों का उल्लंघन तो
है ही, सती प्रथा का महिमामंडन, बाल विवाह को स्थापित करना और स्त्री के प्रति रूढ़
धारणाओं को ही स्थापित नहीं करता बल्कि उसके प्रति हिंसा को भी बढ़ावा देता है. पाठ
के अंत में चुंडावत रानी के कटे हुए शीश को गले में लटका कर युद्ध के लिए चल पड़ता
है, यह दृश अत्यधिक वीभत्स दृश की रचना करता है. कक्षा छह के बच्चों के मस्तिष्क
पर यह बिम्ब किस तरह का असर डालेगा, यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए.
यह कहानी लड़कियों में अपने आप को लेकर एक ऐसी आत्मग्लानी को बढ़ावा देती है कि हाड़ी रानी खुद ही अपना सर काट कर दे देती है. यह कैसी कर्त्तव्य निष्ठा है? यह कैसा साहस है? यह कैसा प्रेम है? क्या यह ऐसा है तो उसे गौरव की तरह प्रस्तुत किया जाना चाहिए या उस पर प्रश्न उठाए जाने चाहिए? खासतौर से ऐसे समय में जब लड़कियों पर एसिड अटैक हो रहे हैं, जब उनके प्रति हिंसा और बलात्कार की घटनाएँ अखबारों में छाई हैं, ऐसे समय में स्त्री और पुरुष संबंधों की किन छवियों का निर्माण पाठ्य पुस्तक को करना चाहिए? किताब एक तरफ विज्ञापन छापती है "बेटी बचाओ, बेटी पढाओ" और दूसरे और अपनी विषय-वस्तु के जरिये एक भिन्न छवि का निर्माण करती है.
- देवयानी भारद्वाज
यह कहानी लड़कियों में अपने आप को लेकर एक ऐसी आत्मग्लानी को बढ़ावा देती है कि हाड़ी रानी खुद ही अपना सर काट कर दे देती है. यह कैसी कर्त्तव्य निष्ठा है? यह कैसा साहस है? यह कैसा प्रेम है? क्या यह ऐसा है तो उसे गौरव की तरह प्रस्तुत किया जाना चाहिए या उस पर प्रश्न उठाए जाने चाहिए? खासतौर से ऐसे समय में जब लड़कियों पर एसिड अटैक हो रहे हैं, जब उनके प्रति हिंसा और बलात्कार की घटनाएँ अखबारों में छाई हैं, ऐसे समय में स्त्री और पुरुष संबंधों की किन छवियों का निर्माण पाठ्य पुस्तक को करना चाहिए? किताब एक तरफ विज्ञापन छापती है "बेटी बचाओ, बेटी पढाओ" और दूसरे और अपनी विषय-वस्तु के जरिये एक भिन्न छवि का निर्माण करती है.
- देवयानी भारद्वाज
Mujhe ye vishlekhak thoda kam akal laga
ReplyDeleteaccha prayas hai
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