शिक्षा को रटंत
प्रणाली में मुक्त करने में लम्बी अकादमिक जद्दोजहद दुनिया भर में चली है. इस जद्दोजहद ने इस मूलभूत मान्यता से मुक्ति दिलाई कि बच्चे कोरी स्लेट या गीली मिट्टी मात्र नहीं होते.
वे अपने सीखने कि प्रक्रिया में सक्रिय सहभागी होते हैं. किसी भी लिखित या अलिखित संसाधन, किसी भी शिक्षक या वयस्क की भूमिका उनके
सीखने की इस प्रक्रिया में एक सुगमकर्ता या सहयोगी की होती है. इसलिए बच्चे क्या
सीख सकते हैं इसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि बच्चे पहले से उस विषय में
क्या-क्या जानते हैं. इसके लिए यह ज़रूरी है कि यह संसाधन और व्यक्ति बच्चों को ऐसे
अवसर अधिक से अधिक उपलब्ध कराएँ जिनमें बच्चे खुद को व्यक्त कर सकें. उनसे उनके
परिवेश, उनके अनुभव से जुड़े प्रश्न पूछे जाएँ. उन्हें जिन नयी अवधारणाओं से परिचित
कराया जाये उनके सन्दर्भ में उनके अनुभवों को टटोला जाये, उनके जरिये उन्हें कल्पनाओं
की उड़ान भरने के मौके दिए जाएं. उन्हें स्वयं सोचने-समझने के अवसर दिए जाएँ.
जहाँ तक भाषा सीखने
का सवाल है, प्रत्येक बच्चा स्कूल आने से बहुत पहले से अपनी घर कि भाषा अपने परिवेश
से अर्जित कर चुका होता है. किसी भाषा में सभी तरह के कौशल उसके पास पर्याप्त
विकसित अवस्था में होते हैं. जैसे वे अपने मन की बात कहना, दूसरे की बात को सुन कर
समझना, पूछे गए सवालों का जवाब देना, नए सवाल पूछना, निर्देशों का पालन करना,
स्वयं निर्देश देना, कल्पना करना, तर्क करना, विश्लेषण. वर्गीकरण, करना, नयी बात
कहना, रचना करना आदि तमाम तरह से भाषा का उपयोग करना जानते हैं. स्कूल में बच्चों
को भाषा सिखाने के लिए शिक्षक का यह जानना ज़रूरी है कि बच्चा अपनी भाषा में क्या
जानता है? उसका यह जानना उसे स्कूल में सिखाई जाने वाली भाषा, इस प्रसंग में
हिंदी, सीखने में कैसे उपयोग में लाया जा सकता है? स्वाभाविक है कि पाठ्य पुस्तक
को भी ऐसे अवसर रचने होंगे जिनके द्वारा बच्चे अपनी बात कह सकें.
राजस्थान में शब्द भण्डार, वाक्य संरचना आदि के लिहाज से इस प्रदेश में बोली
जाने वाली अधिकांश भाषाओँ और हिंदी भाषा में काफी समानताएं हैं. बच्चों
के परिवेश में स्वाभाविक रूप से हिंदी भाषा को सुनने के अवसर भी मौजूद रहते हैं.
इसलिए हिंदी की किताब और शिक्षक के पास ऐसे बहुत से अवसर मौजूद हैं जिन्हें बच्चे
के अनुभव और भाषा से सीधे जोड़ा जा सके. भाषा महज अभिव्यक्ति
या सम्प्रेषण का माध्यम नहीं, लेकिन अभिव्यक्ति या सम्प्रेषण भाषा का एक
महत्वपूर्ण काम तो है. भाषा सीखने की प्रक्रिया में यह ज़रूरी है कि बच्चों को किसी
नए कथ्य से परिचित कराने के दौरान उस कथ्य या उससे मिलती-जुलती परिस्थतियों के
बारे में बच्चों से उनके अनुभवों पर चर्चा कि जाये, उन्हें अपनी बात को अपने
शब्दों में कहने के अवसर दिए जाएँ, नयी कल्पना करने के अवसर दिए जाएँ, किताब में
दी गयी बात को अपने तर्क कि कसौटी पर कसने के मौके दिए जाएँ.
नयी भाषा को जानने और
पढ़ना-लिखना सीखने में उनकी रूचि को बढ़ावा देने के लिए भाषा की पाठ्य पुस्तकों से आरंभिक
कक्षाओं में यह अपेक्षा होती है कि उनमें भरपूर रुचिकर कविताएँ, कहानियां और ऐसी सामग्री हो जो बच्चों
के अनुभव संसार के करीब हो और उसका विस्तार करे. तरह-तरह कि गतिविधियाँ हों जो
उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में सोचने-विचरने के अवसर दे, उनके सामने अपने विषय
से जुड़ी नयी चुनौतियाँ रखें, ताकि वे कक्षा में चलने वाली प्रक्रियाओं के साथ
जुड़ाव महसूस कर सकें और कालांतर में स्वयं पढ़ने और लिखने कि और प्रवृत्त हो सकें.
इस सन्दर्भ में
राजस्थान राज्य कि हिंदी कि नयी पाठ्य पुस्तकें ऐसे कोई अवसर तो रचती ही नहीं हैं,
बल्कि किताबें इस बात के लिए प्रतिबद्ध नज़र आती हैं कि कहीं ऐसे कोई अवसर बन तो
नहीं रहे. कक्षा 1 से 8 तक की हिंदी भाषा कि यह किताबें नैतिक उपदेशों और स्वच्छता
के बोझ तले बुरी तरह दबी हैं. कुछ पाठ जो अपनी पूर्ववर्ती किताब 'रुनझुन' से
ज्यों-के-त्यों उठा लिए गए हैं, वे ही थोड़ी बहुत राहत देते हैं. पाठ कि विषय-वस्तु
या अभ्यास के प्रश्नों के साथ यदि नयी पाठ्य-पुस्तक समिति ने थोड़ी भी छेड़छाड़ की तो
उनका भी हश्र बाकि पाठों के जैसा बना के छोड़ा है. जो पाठ इस तरह की छेड़छाड़ से बच गए हैं उनमे ज़रूर इस तरह के प्रश्न और भाषा मिल जाते हैं जो बच्चों के साथ संवाद
करती जान पड़ती हैं, जिनके प्रश्न बच्चे के अनुभव तक जाते हैं, उन्हें कल्पना के
अवसर देते हैं. जैसे कक्षा 2 में कहानी 'सूरज का रुमाल'. लेकिन पूरी किताब में ऐसे
पाठों कि संख्या बहुत सीमित है. वरना किताबों को बच्चों के खुद सोचने से इतना
परहेज है कि कक्षा 2 की इसी किताब में पहेलियाँ दी है, लेकिन बच्चों को इन पहेलियों को बुझाने का मौका न मिल जाए इसलिए पहेली के साथ ही जवाबी वस्तु का चित्र भी बना कर
दे दिया है. मानो इतने से भी तसल्ली न हुई हो इसलिए इन तीन पहेलियों के ठीक नीचे जवाब
भी लिख कर पेश कर दिए हैं.
यह पाठ्य पुस्तकें
इस बात को सुनिश्चित कर देना चाहती है कि बच्चों को कहीं अपनी बात कहने, अपने
विचारों और कल्पनाओं को व्यक्त करना या उनमें रंग भरना न आ जाये. कल्पनाओं में रंग
भरने के विचार से तो किताब इस कदर आतंकित जान पड़ती हैं कि बच्चों को चित्र बनाने
या चित्रों में रंग भरने तक के लिए अपने विवेक से रंग चुनने या अपनी कल्पना से
चित्र बनाने का अवसर भी इन किताबों में नहीं हैं. कक्षा 2 कि किताब में छह जगह
बच्चों कि पाठ से सम्बंधित चित्र बनाने के अवसर हैं, लेकिन सभी जगह नमूने का चित्र
दिया गया है, जिसमे देख कर बच्चों को हु-ब-हु रंग भरना है. रंग भरने से पहले बच्चे
चित्र को देख कर स्वेच्छा से चित्र बनाने न लग जाएँ इसलिए खाली जगह में बिंदु से चित्र बना दिए हैं, ताकि बच्चे उस पर पेन्सिल फिराते हुए ही चित्र को पूरा करें. किताब में
चार जगह बच्चों के लिए खाली स्थान छोड़ा गया है जिनमें वे अपनी इच्छा से कुछ बना
सकते हैं, लेकिन ऐसी जगहों पर निर्देशों में स्पष्टता नहीं है. जैसे बारिश पर
कविता के बाद बच्चों से कागज़ कि नाव बनाने और पानी में तैराने को कहा गया है. इस
निर्देश के नीचे एक खाली बॉक्स बना कर छोड़ दिया गया है. यह अनुमान ही लगाया जा
सकता है कि यहाँ शायद बच्चों से बारिश से सम्बंधित या नाव का चित्र बनाने कि
अपेक्षा कि गयी है शायद.
पृष्ठ संख्या 100 पर अचानक किताब कल्पनाशीलता के प्रति अत्यंत
उदार हो जाती है. इस पृष्ठ पर खाली बॉक्स के ऊपर निर्देश है "पुस्तक का यह पन्ना आपके लिए है. चित्र, कविता,
कहानी ... जो मन करे उससे इस पन्ने को भरें." यह निर्देश दरअसल कुछ भी नहीं
कहता. न कोई विषय सुझाता है, न कोई विधा बताता है. दो बरस तक जिन बच्चों को अपनी
मर्ज़ी से एक चित्र न बनाने दिया हो, अपने मन से जवाब देने वाले प्रश्न भी
गिने-चुने स्थानों पर ही पूछे गए हों, उनके सामने अचानक इस तरह का पूरी तरह खुला
निर्देश बच्चों को कुछ बनाने या लिखने के लिए प्रेरित करेगा इसमे संदेह करना बेमानी
नहीं.
इस संशय कि बड़ी और
पुख्ता वजह यह भी है कि इस निर्देश में बच्चों से कविता, कहानी लिखने की अपेक्षा कि गयी है. जबकि पहली कक्षा की पूरी किताब में एक भी कहानी नहीं है. कविताओं और कहानियों की भाषा पर बात फिर कभी. फिलहाल यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि अनेक
शैक्षिक अनुभवों और शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि आरंभिक कक्षाओं में
कविता-कहानी का उपयोग बच्चों में भाषा के प्रति लगाव को स्वाभाविक तौर पर बढ़ावा
देता है. पहली कक्षा में एकमात्र कहानी "चित्र पठन" के रूप में दी गयी
है. एक पन्ने पर चार चित्रों के माध्यम से कहानी "खट्टे अंगूर" को
दर्शाया गया है. एक पंक्ति के निर्देश में चित्रों पर बातचीत कर कहानी बनाने को
कहा गया है. कक्षा 2 में इसी कहानी को एक चित्र के साथ दस पंक्तियों कि कहानी के
रूप में पेश कर दिया गया है. न पहली के चित्र सुरुचिपूर्ण. न दूसरी कक्षा में
कहानी की भाषा सरस. पूरे एक साल के बाद उसी कहानी को दे कर किताब किन शैक्षिक
लक्ष्यों को पाना चाहती है? किताब में दिए गए अभ्यास के प्रश्न बच्चों को खुद सोचने और लिखने या बताने के अवसर नहीं देती. जब स्कूल के सन्दर्भ में बच्चों को कल्पना के अवसर दिए ही नहीं हैं, तो बच्चे अचानक आई इस अपेक्षा को कैसे पूरी करेंगे? इसका कोई आधार किताब नहीं देती.
- देवयानी भारद्वाज
- देवयानी भारद्वाज
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