कक्षा 3 की हिंदी कि किताब मानो गलतियाँ करने में खुद से ही होड़ करने में लगी है. इस किताब में छापे की गलतियाँ ज्यादा बड़ी हैं, वर्तनी की, तथ्यों की, अवधारणाओं की या शिक्षण विधियों की, कहना कठिन है. इस किताब के हमें दो रूप देखने को मिले, जिनमें से एक में प्रिंटिंग की गंभीर खामियां हैं।
इसमें 33 से 59 तक पेज उल्टे-सीधे लगे हैं। पेज 33, 37, 40, 52, 53 और 56 गायब हैं
और पेज 41 से 48 तक के पृष्ठ दो-दो बार छपे हैं। इसके चलते पृष्ठों के क्रम और
पाठ्यचर्या गड़बड़ा गई है। पाठ की निरंतरता टूट जाती है। जैसे पेज 32 पर दिया गया पाठ
"कलाकार का असंतोष" अधूरा छूट गया है. ढूंढने पर तीन-चार पृष्ठ के बाद
पेज 34 मिल जाता है लेकिन पेज 33 की जगह एक और अधूरा पाठ दिया हुआ है. इस गड़बड़ी के
चलते अनुक्रमणिका के हिसाब से "गीत यहाँ खुशहाली के" का पेज 37 की
जगह 38 पर नज़र आता है। पेज 37 तो लापता है। "मैं सड़क हूं" पाठ दो बार
छपा नज़र आता है। यह गलतियां केवल बाइण्डिंग की ही नहीं है। पेज प्रकाशित ही इस तरह
हुए हैं कि एक ही पन्ने पर आगे और पीछे की पृष्ठ संख्या में उलट-फेर है. पता लगाना
जरूरी है कि इस तरह की कितनी पुस्तकें गलत प्रकाशित हुई हैं। कहीं ऐसा न हो कि यह गड़बड़झाले
की पुस्तकें ही वितरित भी हो जाएँ.
इतना ही नहीं वर्तनी कि गलतियों की भी इस किताब में भरमार है. एक ही पाठ में कई शब्दों को कहीं तो नुक्ता लगा कर लिखा गया है और कहीं नुक्ते के बिना - जैसे पट्टेबाज या पट्टेबाज़, फैजाबाद या फैज़ाबाद। बिंदी की तो खूब ही गलतियां हैं - एकवचन को बहुवचन या बहुवचन को एकवचन बना दिया गया है। यहां को यहा, थी को थीं लगी को लगीं। धागो, सड़के, तुम होंगे और भी न जाने क्या-क्या। मात्रा की गलतियां भी नजर आ जाती हैं- "कठपुतली धागों से अंगुलियों के सहारे कठपुतलियों को कैसे नचाता है।" यहां कठपुतली के बाद "वाला" शब्द गायब है। पीर की कब्र की जगह पीर "का" कब्र, भारत के आजाद "होने" के दिन। कोई पूछे इनसे देश की आजादी के कितने दिन हैं। ड और ड़ में भी बहुत गफलत पैदा की गई है जैसे झाडू, लडूंगी, पंचकुण्ड़ों आदि। दीर्घ ई को ह्रस्व बना कर लिख दिया है जैसे "कोइ"।
किताब का स्वरुप छोटे
बच्चों कि पाठ्यपुस्तक की बजाय सरकार के प्रचार पेम्फलेट सा अधिक नज़र आता है. मुख्य
आवरण पृष्ठ पर हल बैल और किसान का चित्र है। दूसरे यानी अंदर वाले आवरण पृष्ठ पर
कृमि से मुक्ति बच्चों की शक्ति का विज्ञापन है। तीसरे आवरण पृष्ठ पर विद्याथियों
के लिए लाभकारी योजनाएं और सुरक्षा बीमा योजना के विज्ञापन हैं। जबकि अंतिम आवरण
पर राजकीय विद्यालय में उपलब्ध सुविधाओं की सूचना है। बच्चों की पुस्तक में जिस
तरह के रुचिकर और आकर्षक चित्रों होना चाहिए था इस पुस्तक में इसका
पूर्ण अभाव नजर आता है। इन योजनाओं की जानकारी पाठ्य पुस्तक में दे कर
सीखने-सिखाने में यह किताबें क्या योगदान करना चाहती हैं?
इस पुस्तक कुछ पाठ ऐसे
है जो पिछली पाठ्य-पुस्तक "रुनझुन" से लिए गये हैं. ऐसे पाठ हैं "मैं सड़क हूं", "काठ
की पुतली नाचे गाए" और "अजमेर की सैर"। इन तीनों पाठों को भी एक
ही तरह से नहीं बरता गया है. चित्र तो सभी पाठों के बदले गये हैं लेकिन प्रत्येक
पाठ की विषयवस्तु में बदलाव का स्वरुप भिन्न है.
- "मैं सड़क हूँ" पाठ की विषयवस्तु में कोई बदलाव नहीं है, लेकिन तस्वीरों में बदलाव जेंडर विभेद को बढ़ावा देता हुआ सा नज़र आता है. पुरानी किताब में सड़क की तस्वीर को जीवंत बनाने के लिए आँखें दर्शायी गयी थीं, लेकिन इस किताब में ललाट के बीचो-बीच बिंदी लगा कर उसे स्त्री बना दिया गया है. एक पितृसत्तात्मक समाज में सड़क को स्त्री के रूप में प्रदर्शित करने के निहितार्थों के प्रति पाठ्यपुस्तक से इस तरह की लापरवाही की अपेक्षा नहीं रखी जाती.
- पाठ "अजमेर की सैर" की विषयवस्तु को बदला गया है। इसमें से उर्स के दौरान रहने वाले उत्सव के माहौल और ढाई दिन के झोंपड़े के उल्लेख को हटा कर अचानक पुष्कर की सैर को शामिल कर दिया है. यह पाठ दो बच्चों के स्वाभाविक संवाद से निकल कर अचानक ही इतिहास के तथ्यों को उछालने लगता है, और उनमें भी सटीकता का अभाव है. और तो और पाठ से जो अंश संपादित कर दिए गए हैं, अभ्यास के प्रश्नों में उनसे सम्बंधित प्रश्न भी पूछ लिए गए हैं.
नई पुस्तक में कहीं
लेखकों या पिछली पुस्तक का उल्लेख तक नहीं किया गया है। भाषा शिक्षण के लिए जिस
तरह की साहित्यिक अभिव्यक्ति, कल्पनाशीलता या रचनात्मकता की अपेक्षा की जाती
है उसका सर्वथा अभाव पाठों के इन शीर्षकों में नजर आता है- "मीठे बोल",
"शिष्टाचार" "आदमी का धर्म" "कंजूस सेठ" आदि। हर
पाठ के अंत में एक नीति वाक्य भी दिखाई देता है।
कक्षा एक से नैतिकता और
स्वच्छता का जो पाठ पढ़ाने की शुरुआत हुई थी वो कक्षा 3 में भी जारी नजर आती है।
पाठ 2 का नाम ही "मीठे बोल" है। इसमें खरगोश अपनी मीठी बोली से सफलता
पाता है और लोमड़ी कड़वा बोल के परेशानी मोल लेती है। उपदेश है क्या कहना चाहिए क्या
नहीं। दो कॉलम में बच्चों को सूची बनाने को कहा गया है कि वे क्या करें और क्या
नहीं, यथा- सच बोलें, झूठ न बोलें। यानी बच्चों पर सच और झूठ का बोझ लादा गया है।
शिष्टाचार पाठ में सभ्य आचरण, झूठ नहीं, चोरी नहीं, माता-पिता की आज्ञा नहीं टालना,
बड़ों की बात नहीं काटना। शिष्ट भाषा का प्रयोग, ऊधम नहीं मचाना, फूल नहीं
तोड़ना। बच्चों पर एक लंबी सूची लाद दी गई है।
पाठ चार में फिर से
दांत मलो, मुंह-हाथ धोओ का सबक है। पाठ 6 का नाम "आदमी का धर्म है" पाठ
11 "अपना देश" में फिर से साहस और बलिदान आदि का उल्लेख है। पाठ 12 में
पठन अभ्यास में अपनाओं अच्छी आदतें - दांत गंदे न रहें, नाखून काटना, रोज नहाना, तेज
नहीं चिल्लाना की रट लगाई गई है। इन सब के बीच बच्चों का बचपन खोता हुआ नजर आता
है।
चित्रों में कहीं हाथ जोड़े बच्चे खड़े हैं, कहीं मंजन करते तो
कहीं नहाते हुए। इस पुस्तक में भी परंपरागत भूमिकाओं को ही दर्शाया गया है। मसलन
स्कूटर चलाता पुरुष, झूला झूलती औरत, हल चलाता पुरुष, मूर्ति बनाते पुरुष कलाकार
आदि।
पुस्तक में नैतिकता
और देश प्रेम के दबाव के चलते गरीब, वंचित और
उनका परिवेश पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। मानवीय गुण और कर्तव्य बोध
किताबों के पाठ पढ़ने से ही नहीं आ जाते उसके लिए कुछ अन्य अभ्यास भी जरूरी होते
हैं। दूसरी बात यह कि पुस्तक का मकसद है हिंदी भाषा सिखाना और उसके प्रति रुचि
पैदा करना जो नैतिक शिक्षा पढ़ाने से हासिल नहीं हो जाने वाला है।
- ममता जैतली
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