बार बार घटा कर भाग करना
बराबर बंटवारे को बंटाधार करके ही लेखकगणों का
मन नहीं भरा तो उन्होंने इसी पाठ में बार बार घटा कर बचे खुचे भाग को भी इस
हड़बडी़ में निपटा दिया जैसे उनके पीछे गणित के भूत लगे हों। बराबर बांटने को
समझाने में उन्होंने अपने हिसाब से तो पांच पन्ने लगाए थे। यह बात दूसरी है कि
पहले दो पन्नों में उन्होंने बेचारे भाग को किताब में दाखिल होने जगह ही नहीं दी
और बाकी तीन पन्नों में वे पूरी मेहनत करने के बावजूद बच्चों से भाग की
प्रक्रिया करवा नहीं पाए। लेकिन इस सारी जद्दोजहद में लगी अच्छी खासी मेहनत से थक
हार कर उन्होंने बार बार घटा कर भाग करने की अवधारणा को सिखाने का काम एक पन्ने
में ही पूरा कर दिया। आखिर कब तक कोई लेखक, शिक्षक व बच्चे की बातचीत लिखता रहे और
हर पन्ने पर चीजों को चित्रों में बार बार बंटवाने के बारे में सोचता रहे, खास तौर पर ऐसे लेखक जिन्हें खुद भी चीजों के
चित्रों व बातचीत के जरिए भाग करना व सिखाना आता ही न हो।
सो बुरी तरह से थके हारे लेखकगणों ने पहला काम
यह किया कि पहली बार झाड़ू फिराई और बच्चों को पन्ने से बाहर कर दिया। ना रहेगा
बच्चा और ना ही बचेगा सिखाने की बांसुरी बजाने का कोई झंझट। हो सकता है कि उन्होंने
सोचा हो कि जब सब हमें ही बताना है तो बच्चों को किताब के पन्ने पर दाखिल करने
की क्या जरूरत। फिर दूसरी बार झाड़ू फिराई और चीजों के चित्रों को भी इस पन्ने
से बाहर का रास्ता दिखा। तो अब इस पन्ने पर क्या बचा। अध्यापिका और सवाल।
जिसको सीखना है वो किताब से बाहर ही रहे, काहे को मुंह उठाए किताब के अंदर को चला आता है, अपनी किताब समझी है क्या!
अब अध्यापिका पन्ने की शुरूआत में पन्ने से
बाहर निकाल दिए बच्चे से कहती है, ‘’आओ अब संख्याओं काा बंटवारा निम्न प्रकार से
करते हैं।‘’ जैसे ही बच्चों को
पन्ने से बाहर खदेड़ा, तो शिक्षिका की भाषा एकदम अमूर्त हो जाती है। वह अब चीजों को बांटने की बात
नहीं करती, अब संख्याओं के
बंटवारे की बात करने लगती है। यानी इस बात को पढ़ या सुन कर बच्चों के दिमाग में
किसी किस्म की कोई भी तस्वीर बनने की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं बचती।
बच्चों के सामने पहली बार, बार-बार घटा कर किए जाने
वाले भाग को सिखाने के लिए जिस भाषा में और जो सवाल चुना गया है वह इस बात का
बेहतरीन नमूना है कि कैसा सवाल चुना जाए कि उसे सुन कर बच्चों को कड़क ठंड में भी
पसीना चूने लगे । जरा देखिए, ‘’10 पुस्तकों को कितनी बार बराबर बांटें कि सभी को समान पुस्तकें
प्राप्त हों ?’’ आप सर खुजाते रहिए कि इससे आप क्या समझे। इतना मत खुजा लीजिएगा कि सर से खून निकलने लग जाए ।
इस सवाल की बुनावट में दो तीन समस्याएं हैं
जिन्हें मैं एक एक करके आपके सामने रखने की कोशिश करूंगा।
पहली समस्या यह है, कि इस सवाल में जो ‘’कितनी बार बराबर बांटे’’ वाक्यांश आया है उसका
मतलब आसानी से समझ नहीं आता। भाग के दो अलग अलग अवधारणात्मक अर्थ होते हैं। एक
में आप कुछ चीजों को कुछ लाेेगों में बराबर बांटते हैं और अंत में यह पता लगाते हैं
कि हरेक को कितनी मिली। दूसरे अर्थ में आप कुछ कुछ चीजों में से एक ही संख्या में
चीजें बार बार निकालते हैं और अंत में यह पता लगाते हैं कि कितने व्यक्तियों को मिलींं।
कितनी बार बराबर बांटे वाला वाक्यांश दोनों अर्थेां को मिला कर इस
पन्ने पर कुुछ ऐसा रायता फैलाते हैं कि आखिर तक लेखक गण भाग को समझाने में नाकाम ही रहते हैं।
दूसरा, ‘कितनी बार बराबर बांटे’ वाले वाक्यांश के अटपटेपन
को समझने का एक तरीका यह हो सकता है कि आप कुछ बच्चे लें व उनमें पुस्तकों को
बांट कर देखें। जैसे,
1.
20 बच्चे लेकर उनमें 10 पुस्तकें बांट कर देखें तो उनमें
से 10 में से हरेक को 1 मिली व बाकी 10 को कोई किताब नहीं मिली। इस तरीके में आपने
किताबें एक बार बांटी।
2.
इसी तरह 19/18।17 से लेकर 11 बच्चों में पुस्तकों बांटेे तो नतीजा
पहलेे बिंदु वाला ही आयेगा।
3.
फिर आपने 10 बच्चे लेकर उनमें 10 पुस्तकें बराबर बांट कर
देखी तो हरेक को समान संख्या में एक-एक पुस्तक मिली।
4.
9 से लेकर 1 बच्चे को लेकर उनके बीच 10 पुस्तकें बांट कर
देखी तो 9/8/7/6/4/3 बांटी तो बराबर नहीं बंटी।
5.
5 व 2 बच्चे लेकर 10 पुस्तकें बांटी तो उनमें में हरेक को
समान संख्या में 2-2 और 5-5 पुस्तकें
मिलीं।
6.
1 बच्चे को दी तो सारी पुस्तकें एक को ही देनी पड़ी बराबर
बांटने की तो नौबत ही न आई। एक को ही सभी चीजें दे देने को क्या आप बांटना
कहेंगे।
आप देख सकते हैं कि इस सवाल को शब्दश: समझ कर
हल करने के लिए आपको 20 बार अलग अलग संख्या में बच्चों की कल्पना करके पुस्तकें
बांटनी पड़ी। उससे मिलने वाले नतीजों को व्यवस्थित रूप से दर्ज करना पड़ा। अंत
में आपने पाया कि उन में से तीन हालात ऐसे हैं जब बच्चों को बराबर संख्या में पुस्तकें मिलती है। लेकिन एक सवाल में आपको एक बार, एक में दो बार और एक में
पांच बार देनी पड़ी। तो आपके पास कितनी बार के तीन जवाब हैं और तीनों ही सही हैं।
क्या आप कक्षा दो में भाग की शुरूआत में इतना मुश्किल सवाल बच्चों से हल करने की
उम्मीद रखते हैं जिसे हल करके दर्ज करने की हिम्मत व समझ के कोई सबूत लेखकों तक
में नजर नहीं आते। आपने ध्यान दिया होगा कि इस सवाल को हल करना कितना पेचीदा व
मुश्किल काम है। और वह भी तब जब आपने बच्चों को बराबर बांटना अच्छे से सिखाया
हो और बच्चे उच्च प्राथमिक में हों। आपको याद होगा कि यही लेखक पाठ के पहले हिस्से में बराबर बांटने की क्रिया
करवाने में पूरी मेहनत के बावजूद नाकाम ही रहे थे।
दूसरी समस्या यह है कि इस सवाल में दो चीजें
अज्ञात हैं। पहली, ‘’कितनी बार’’ की संख्या और दूसरी, ‘’सभी’’ की संख्या। यानी भाग को
सिखाना शुरू करने के वक्त बच्चों से दो अज्ञात राशियों वाला सवाल पूछा जा रहा
है।
आपको याद आ रहा होगा कि अज्ञात राशियों वाले सवाल
तो आम तौर पर कक्षा 6 में बीजगणित के आरंभ होने के भी बाद, कक्षा 6 में समीकरणों पर काम करते वक्त
पूछे जाते हैं। लेकिन यहां पर लेखकों ने कक्षा 2 में भाग को सिखाने के शुरूआती
सवाल को ही कक्षा 6 व 7 के स्तर के सवाल में तब्दील करने की महारत दिखा दी है। यानी
कक्षा 6-7 के स्तर का सवाल कक्षा 2 के बच्चों को दिया जा रहा है।
तीसरी व सबसे प्रमुख समस्या यह है कि इस सवाल
को पढ़ने से यह पता नहीं चलता कि दी गई पुस्तकों को बराबर कैसे बांटा जाएगा ? और उन 10 पुस्तकों को
कितने लोगों में बांटा जाएगा ?
इसके बाद उपसवाल के तौर पर एक सवाल और दिया गया
है, जिसे रंगीन व मोटे अक्षरों
में दिए गए प्रमुख सवाल से अलग किया गया है, ‘’जब 2 पुस्तकें दें तब’’। इस उपसवाल को अलग से देने की वजह साफ नहीं है क्योंकि
लेखकों ने एक बार ही शर्त लगा कर सवाल को आगे हल कर दिया है। आगे उन्होंने जब
2/3/4/6/7/8/9/10 पुस्तकें देकर इस तरह का कोई नया
सवाल नहीं पूछा तो पहले वाक्य में ‘’जब .... ‘’ की शैली का इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी।
अब
अगर आप इस प्रमख सवाल व उपसवाल को मिला कर समझने की कोशिश करें तो मुश्किल यह आती
है कि प्रमुख सवाल को 10 पुस्तकों को ‘कितनी बार बराबर बांटने’ की बात कर रहा है और उपसवाल
जब 2 पुस्तकें दे तब क्या होगा, की बात कर रहा है। अभी भी
यह बात तो एक महा गोपनीय रहस्य ही है कि ये 10 पुस्तकें किसको देनी है। वैसे
आपका ध्यान इस बात पर भी गया ही होगा कि प्रमुख सवाल में एक ही बात को दो बार
दोहरा कर और उलझा दिया गया है – ‘’बराबर बांटे’’ तथा ‘’समान पुस्तकें प्राप्त हों’’। बराबर बांटने का मतलब ही यही होता है
कि सभी को समान संख्या में पुस्तकें बांटी जाए। प्रमुख सवाल में एक शर्त को दो
बार कहने का कारण भी गोपनीय ही है।
जिस ‘’कितनी बार’’ वाले सवाल को गाढ़े नीले अक्षरों के लिख कर बच्चों
का ध्यान खींचने की इतनी मशक्कत लेखकगणों ने की, उनकी कलम की स्याही तब सूख जाती है जब
वे 10 में से 2 को पांच बार घटाते हैं। उस वक्त वे हर बार यह कहने/लिखने की जरूरत
नहीं समझते कि इस 2 को पहली बार, दूसरी बार . . . .
. पांचवी बार घटाया। या 2 को एक एक करके कुल 5 बार घटाया। संभवत: उन्होंने नीली व
काली स्याही की बचत करने के मकसद से सफेद स्याही में सफेद कागज पर लिखा हो, जिसे आपकी, मेरी और बच्चों की निगाहें
देख न पाती हो। आखिर दिव्य दृष्टि हरेक के पास थोड़े ही होती है।
इतनी मुश्किल व पेंचदार भाषा में सवाल गढ़ने व देने
के बाद लेखकगणों को इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि बच्चे 10 में से 2 व 8 में
से 2 आदि घटाने का सवाल भी करने के काबिल नहीं हैं सो उन्होंने 10 में से 2 को एक
एक करके पांच बार घटाया और आखिर में शून्य हासिल कर लिया। अजीब लेखक हैं कक्षा
6-7 के स्तर का सवाल बच्चों के पढ़ या सुन कर समझने की उम्मीद रखते हैं और
कक्षा एक के स्तर के घटाने के सवाल को बच्चों से हल करवाने से कन्नी काट जाते
हैं और सवाल का जवाब बताना भी भूल जाते हैं।
इसी पन्ने पर दूसरा सवाल
देते वक्त किसी लेखक को इलहाम हो जाता है कि कुछ गड़बड़ हो रही है तो वे प्रमुख
सवाल व उपसवाल को मिला देते हैं इस उम्मीद में कि शायद इससे दो की जगह एक ही
अज्ञात राशि हो जाए। वे दूसरा सवाल कुछ इस तरह से गढ़ देते हैं, ‘’इन्हीं 10 पुस्तकों को कितनी
बार बांटें कि सभी को 5-5 पुस्तक प्राप्त हो ?’’ वैसे हो सकता है कि उन पर
पेज पर जगह कम रह जाने का दबाव रहा हो जिसकी वजह से उन्होंने उपसवाल को प्रमुख
सवाल में मिला दिया। लेकिन इसके बावजूद सवाल में दो
चीजें तो अज्ञात रहती ही हैं, एक तो – ‘’सभी’’ व दूसरा ‘’कितनी बार’’।
तभी शायद लेखक समूह में से
किसी को याद आता है कि अरे पहला सवाल पूरा हल तो करके दिखा दिया लेकिन उसका जवाब
को बताया ही नहीं। तो दूसरा सवाल लिखने के बाद अध्यापिका प्रगट होकर पहले सवाल का
जवाब कुछ इस तरह से देती है, ‘’10 पुस्तकों को 5
बार बांटने से सभी को 2-2 पुस्तकें मिलती हैं। यानी लेखकों
ने खाली स्थान भरने की तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, अपनी
तरफ से सवाल में ‘कितनी’ की जगह पर 5
रखा और ‘समान’ की जगह पर 2-2 रख दिया। बार
बार आकर बोलने वाली अध्यापिका आपको पुस्तक में यह नहीं बताती कि उसने इन10 पुस्तकों
को कैसे बांटा।
आपको अगर अब तक यह पता नहीं चला कि अज्ञात राशि ‘’सभी’’ की संख्या
कितनी है तो यह लेखकों का कसूर नहीं, उन्होंने तो भरपूर
मेहनत करके आपको समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब आप चाहें तो दोबारा इसी पन्ने
को बारीकी से एक नहीं सौ बार पढ़ जाइए और अज्ञात ‘’सभी’’ का पता लगाइए। आखिर आपको खुद में और बच्चों में ऐसी चीजों को खोजने की
काबिलियत का विकास करना है या नहीं जो वहां पर हो ही नहीं।
पहले सवाल के हल की घोषणा करने के बाद लेखकगण दूसरे सवाल को
हल करके रख देते हैं। यहां तक आते आते किसी लेखक को फिर से यह इलहाम हो जाता है कि यह
अज्ञात ‘’सभी’’ बेवजह गले की
फांस बन रहा है सो वे जवाब में से ‘’सभी’’ पर झाड़ू फेर देते हैं। अब आप जवाब को पढ़िए। वह भी कोई सवाल से कम थोड़े
ही है – ‘’10 पुस्तकों को 2 बार
बांटने पर 5-5 पुस्तकें प्राप्त होती है’’ दस को आप दो बार बांटिए और जवाब में सिर्फ 5-5 पुस्तकें प्राप्त कर
दिखाइए। मैंने बांटा तब मुझे तो कई जवाब मिले। जिसने भाग की अवधारणा के परखच्चे उड़ा
दिए। जैसे,
1. एक को 1 व दूसरे को
9 मिली।
2. एक को 2 व दूसरे को 7 व तीसरे को 1 मिली।
3. एक को 2 व दूसरे को 4 व तीसरे को 3 व चौथे को 1 मिली।
4. ...............
5. इसी तरह पुस्तकें बांटने पर अलग अलग लोगों को अलग अलग संख्या
में पुस्तकें मिली।
ऐसा इसलिए हो गया क्योंकि लेखकों ने सवाल में बराबर बांटने
के लिए कब कहा था, उन्होंने तो
सिर्फ कितनी बार बांटने को कहा था, सो बांटने का नतीजा ऊपर दिए
तरीके से निकल आया।
मेरा अनुमान यह है कि लेखकगणों को, भाग की अवधारणा, न तो जब वे बचपन में किसी स्कूल
में पढ़ते थे, तब समझ में आई, और ना ही
खुद बड़े होने के बाद बच्चों को पढ़ाते वक्त समझ में आई, अगर
वे कहीं पढ़ाते हैं तो। इन पुस्तकों में वैदिक गणित के नाम से कुछ गणना की तरकीबें
वाले पाठ लिख कर जोड़ने की भरपूर मशक्कत के बावजूद उनकी खुद की भाग की अवधारणा की समझ में
कोई फर्क पड़ा़ हो, ऐसा भी नजर नहीं आता।
असल में भाग की अवधारणा को दो
तरह से समझा जाता है। एक तरीका होता है, बराबर बांटना व दूसरा तरीका होता है, बार बार घटाना।
बराबर बांटने में कुछ चीजों
को कुछ व्यक्तियों में बांट कर यह पूछा जाता है कि हरेक को कितने मिले ? जैसे, 12 गेंदे 3 बच्चों में बराबर बांटी तो हरेक को कितनी कितनी
गेंद मिली? इस तरह के सवाल
में दो चीजें हमें पता होती हैं, जैसे, कुल गेंदें तथा बच्चों की संख्या। करना क्या है,
यह सवाल में दिया होता है कि बराबर बांटना है। तो बराबर बांट कर यह पता लगाना होता
है कि हरेक को कितनी कितनी मिलेगी। इसे करने का तरीका यह होता है कि हरेक को बारी बारी
से एक एक गेंद तब तक दी जाए जब तक कुल गेंदे खत्म ना हो जाए। फिर देखा जाए कि सबको
बराबर बराबर मिली है या नहीं। अंत में हरेक को मिली गेंद की संख्या गिन कर जवाब का
पता लगा लिया जाए। आपने ध्यान दिया होगा कि इसमें एक ही राशि अज्ञात है, जिसका पता लगाने के लिए कौनसी क्रिया करनी है इसका संकेत सवाल में मौजूद रहता है।
बार बार बांटने में कुछ चीजों में से बराबर मात्रा में चीजें
एक एक व्यक्ति को देकर यह पूछा जाता है कि कुल कितने व्यक्ति को बराबर चीजें मिलीं।
जैसे, आपके पास 12 गेंदें हैं आप एक बच्चे को 3 गेंदें
देना चाहते हैं तो आप कितने बच्चों को दे सकते हैं ? 12 गेंदों में से
एक बच्चे को 3 गेंदे दें तो कितने बच्चों को 3-3 गेंदें मिलेंगी
? इसमें बराबर मात्रा में दी जाने वाली गेंदों की संख्या पहले
से तय है व सवाल में दी गई है आपको सिर्फ यह पता लगाना है कि वे कितने बच्चों को मिल
सकती हैं। यानी बार बार घटा कर भाग करते वक्त आपको बराबर मात्रा का पता नहीं लगाना
होता बल्कि उस मात्रा को पाने वाले व्यक्तियों की संख्या का पता लगाना होता है जो
कि अज्ञात होता है।
एक अध्यापक को भाग की अवधारणा नहीं आती हो तो वह सिर्फ एक स्कूल
के बच्चों को भाग सिखाने में नाकाम रह सकता है। लेकिन अगर एक राज्य की किताबों में
भाग की अवधारणा का ठीक से नहीं दिया गया हो तो पूरे राज्य के दलितों, गरीबों, अल्पसंख्यकोंं के बच्चों व खास तौेर पर लड़कियों को गणित की एक जरूरी अवधारणा को सिखाने में नाकाम रहने का खतरा सामने
खड़ा हो जाता है। आज हम इसी खतरे से दो चार हो रहे हैं।
रवि कांत
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