Sunday, 5 June 2016

मन गणित (कक्षा 5 - प्रश्‍नावली 17.2)




मन गणित वाले पाठ की आखिरी प्रश्‍नावली  17,2 काफी हैरतअंगेज तरीके से बनाई गई है। इससे पिछली प्रश्‍नावली(जिसका फोटो यहां नहीं लगाया गया है)  में भले ही बहुत ही कम जगह रखी गई, लेकिन वहां भी कम से कम चुटकी भर जगह तो छोड़ी गई है जिसमें अगर बच्‍चा उन सवालों को हल कर पाए तो कम से कम किसी तरह लिखने की कोशिश भर तो करे। इस पन्‍ने पर आते ही लेखकों को उतनी जगह छोड़ना भी कबूूल नहीं। 

एक तरह से देखें तो इस प्रश्‍नावली के पहले सवाल के अंतर्गत दिए सभी छह सवाल गलत हैं। क्‍योंकि किसी भी सवाल का जवाब उसके नीचे दिए जवाबों से मेल नहीं खाता। और पाठ पढ़ाते वक्‍त लेखकगणों ने यह तो सिखाया ही नहीं कि दिए गए तीन जवाबों मेें से उपयुक्‍त जवाब न मिले तो क्‍या करें और ना ही उन्‍होंने चौथे विकल्‍प की कोई संभावना रखी है। जैसे 40 में 30 जोड़ने पर 70 आते हैंं लेकिन 1(iii) में दिए गए तीनों जवाबों में 70 केे लिए कोई जगह नहीं है। वहां पर 106, 057 व 086 ने कब्‍जा किया हुआ है जो कि गलत जवाब हैं। 

सवालों की भाषा को जानबूझ कर बोलचाल की भाषा से काट कर रखा गया है ताकि गलती से भी कोई बच्‍चा अगर इसे पढ़ भी ले तो समझने से तीस कोस दूर ही रहे। जैसे, क्‍या संक्रिया कराई जाए कि उत्‍तर 54 प्राप्‍त हो, उत्‍तर सदैव शून्‍य प्राप्‍त हो, दोनों के स्‍थान पर शून्‍य प्राप्‍त है, आदि। वाक्‍य के अंंत में कहीं 'हो' तो कहीं वही हो, 'है' हो जाता है। 

सवाल क्रमांक दो से 2 से 11 तक ऐसे सवाल दिए गए हैं जिन्‍हें हल करने का तरीका पाठ में सिखाया ही नहीं गया। आम तौर पर गणित की पाठ्यपुस्‍तकों में इस रिवाज का ख्‍याल रखा जाता है कि जिस तरह की अवधारणा व सवालों के उदाहरण पाठ में समझाए गए हों उसी तरह के या उससे मिलते जुलते सवालों को प्रश्‍नावली में दिया जाए। ताकि बच्‍चे पाठ में दी गई अवधारणा व उसके साथ दिए गए उदाहरणों को समझ को प्रश्‍नावली में दिए गए सवालों को हल कर सकें। कई बार इक्‍का दुक्‍का ऐसे सवाल भी दिए जाते हैंं जो पाठ में दिए गए उदाहरणों से बनी समझ के सामने चुनौती पेश करके उसे थोड़ा फैलाएं ताकि बच्‍चे चुनौतियों से जूझने का आनंंद महसूस कर सकें। 

लेकिन इस पाठ के संदर्भ में ऐसा लगता है कि लेखकगण इस रिवाज से इत्‍तेफाक नहीं रखते। संभवत: उनकी मान्‍यता यह है कि पाठ में भले ही कुछ भी व कैसे भी पढ़ाया गया हो, अंत में दिए किसी भी किस्‍म के सवालों को हल करने का जिम्‍मा बच्‍चों का है। वैसे ही जैसे शिक्षा व्‍यवस्‍था कैसी भी हो, पास फेल होने का बोझ तो बच्‍चों को ही उठाना है। 

पाठ व प्रश्‍नावली को मिला कर देखें तो ऐसा लगता है कि लेखकगण संभवत: यह मान कर चल रहे हैंं कि यह मन-गणित वन-गणित सरकारी स्‍कूलों के बच्‍चों के बस की चीज तो है नहीं, तो इस पाठ को बनाने में सर खपाने की क्‍या जरूरत है। जैसा तैसा बन जाए वैसा बना दो और किताब में लगा दो क्‍या फर्क पड़ता है। पाठ व उसके अभ्‍यास को बनाने में लेखकगणों, शिक्षा अध्‍ािकारियों व उसे तुरत फुरत छाप देने के लिहाज से प्रकाशकों की लापरवाही के आधार पर भला आप इसके अलावा और किस नतीजे पर पहुंच सकते हैं।

रवि कांत

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