Tuesday, 28 June 2016

स्त्री विरोधी हिंदी की किताबें

कक्षा एक में हिंदी की किताब 'औ' से औरत पढ़ाते हुए "औरत ममता की मूरत है, भोली-भाली सूरत है” के जरिये स्त्री को एक रूढ़ छवि में कैद करती हैं. आगे सभी कक्षा स्तरों पर हिंदी की किताब इसी परिपाटी का निर्वाह करती हैं या इससे आगे बढ़ कर कई जगह स्त्री विरोधी भी हो गयी हैं. यह परिपाटी कैसे उत्तरोत्तर बढ़ती है इसे कुछ ख़ास पाठों का विश्लेषण करते हुए समझा जा सकता है.
कक्षा दो में एक पाठ है "स्नान" इसमें दो जगह लडके और लड़की नहाने के लिए सर पर पानी गिराते हुए दिखाया गया है और दोनों दृश्यों में लड़की ने पूरे वस्त्र पहने हुए हैं, जबकि लड़का महज एक अंतर वस्त्र में शरीर पोंछ रहा है या नहा रहा है. यानि यह किताब कक्षा दो से ही लड़कों और लड़कियों को यह समझा देना चाहती हैं कि लड़की कि देह को हमेशा छुपा – ढंका होना चाहिए.




कक्षा तीन में सड़क की आत्मकथा पर बात करते हुए किताब सड़क का मानवीकरण करते हुए उसके माथे पर बिंदिया लगा देती है. सड़क जो यह बताती है कि वह सबकी सहायता करती है, सड़क कहती है, "गाय, भैंस, बैलों के झुण्ड जब मेरे ऊपर से गुज़रते हैं तो मैं अपना दुःख-दर्द भूल जाती हूँ." यानि सड़क का स्वभाव है कि सबके सुख-दुःख में शामिल होना और सबको अपनी मंजिल तक पहंचाना. और ऐसी सड़क को यदि मानवीय रूप दिया जायेगा तो उसे स्त्री की तरह ही दर्शाया जा सकता है. हिंदी भाषा में दो ही लिंग से सभी वस्तुओं को संबोधित किया जाता है, उस लिहाज से सड़क अपने लिए स्त्रीलिंग शब्दों का उपयोग करती है, लेकिन चित्रों में उसे बिंदी लगी हुई रूढ़ स्त्री छवि से जोड़ना और सब कुछ सहते जाने का भाव स्त्री की रूढ़ छवि को मजबूती प्रदान करता चला जाता है.
कक्षा पाँच में पाठ "मेहनत की कमाई" पाठ में पिता अपने बेटे को अपनी मेहनत से पैसा कमाने के लिए भेजता है लेकिन एक दिन माँ और दूसरे दिन बहन उसे पैसा दे देती हैं, जिसे बेटा पिता के कहने पर कुँए में फेंक आता है. आखिर पिता माँ और बहन को बाहर भेज देते हैं और तब बेटे को खुद मेहनत कर कमाना पड़ता है, जिसे वह कुएँ में नहीं फेंकता. इसके बाद पिता बेटे को कारोबार सौंप देता है. यह पाठ भी इसी तरह का सन्देश देता है कि माँ और बहन के पास दूरदृष्टि और किसी काम के पीछे के उद्देश्य को देखने वाली दृष्टि का अभाव है. और पिता के कारोबार का उत्तराधिकार बेटे को ही मिलता है.
स्त्री पुरुष की अनुगामी है इसकी झलक जगह-जगह पर अभ्यास के प्रश्नों में भी मिलती है, जैसे कक्षा 2 में पाठ 11 "शेर और चूहा" के साथ दिया गया अभ्यास का प्रश्न है "जैसे आउंगा से आउंगी बना. इसी तरह आप भी नीचे दिए गए शब्दों से नये शब्द बनाएं – खाउंगा, चलूँगा, नाचूँगा, करूंगा... " इससे बच्चों को यह समझ आता है कि भाषा में मूल क्रिया पुरुषवाचक होती है और स्त्री वाचक क्रियाएँ उसी से निर्मित होती हैं. इसी का एक और नमूना देखा जा सकता है कक्षा 6 में पाठ "गुलाब सिंह" में. इस पाठ में बहन और माँ के प्रेम की बातें हैं. उनके बाद एक कौमी जुलूस में जब बहन भागीदारी करना चाहती है तो भाई उसे रोक देता है. वह बहन से राजकुमार की तरह तिलक करवा कर झंडा उठा कर चल पड़ता है. इस पाठ में भी जुलूस का मकसद, बादशाह के अत्याचार के कोई आधार नहीं है, सिर्फ एक उन्माद सा नज़र आता है जिसके लिए भाई जुलूस और झंडा ले कर चल पड़ता है और उसी तरह के उन्माद के साथ इसे मार दिया जाता है. जब भाई मर जाता है तो वही झंडा बहन उठा कर चल पड़ती है. यानि प्राथमिक तौर पर भाई निकलता है, लेकिन यदि भाई को मार दिया गया है तो उसके मकसद को बहन आगे ले जाती है. वह न अपना निर्णय खुद ले सकती है न ही प्राथमिक तौर पर नेतृत्व करना उसका काम माना गया है. यह कहानी सुभद्रा कुमारी चौहान की है, लेकिन बड़े लेखकों की खराब रचनाओं का चयन इन किताबों की एक प्रमुख विशेषता नज़र आती है.

कक्षा 8 की किताब में पाठ है प्रेमचंद की लिखी कहानी है "सुभागी". सुभागी कम उम्र में विधवा हो जाती है. लोग उसके दूसरे विवाह की बात करते हैं. 'हरिहर ने सुभागी को समझा कर कहा, "बेटी हम तेरे भले के लिये ही कहते हैं. माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं, उनका क्या भरोसा. तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी." इस कहानी को एक लड़की की हिम्मत की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो विधवा हो जाने के बाद पिता के घर लौट आती है और घर-बाहर के सारे काम-काज संभाल लेती है, लेकिन अपने कलेवर में यह कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों की रूढ़ छवियों को ही पुनःस्थापित करती है.
जैसा कि सामान्यतः सभी पाठों में है यह कहानी भी विषय-वस्तु के स्थूल पक्षों में ही उलझ कर रह जाती है. कहानी में अनेक ऐसे अवसर हैं जो पित्रसत्तात्मक समाज की संरचना पर सवाल उठा सकते हैं. लेकिन पाठ उन सारे सवालों से बचते हुए सुभागी, तुलसी महतो और सजन सिंह को महान साबित करने के खर्च हो जाता है और सुभागी का भाई बेवजह खलनायक बन कर रह जाता है. इस तरह एक कहानी जो वृहत्तर प्रश्नों की तरफ के जाई जा सकती थी वह सतही घटनों का ब्यौरा मात्र बन कर रह गयी.
पति की मृत्यु के बाद सुभागी को माता-पिता के घर क्यों लौट आना पड़ा? सुभागी से हरिहर ऐसा क्यों कहते हैं कि " माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं, उनका क्या भरोसा. तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी". सुभागी के पिता मृत्यु के समय सजन सिंह से ऐसा क्यों कहते हैं कि "सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो. उसे तुम्हें ही सौंपे जा रहा हूँ." यह कहानी एक तरफ औरत की 'त्याग, बलिदान और ममता की मूरत की छवि को पुख्ता करती है. दूसरी तरफ अंततः स्त्री को किसी न किसी पालनकर्ता कि ज़रुरत है, वह पिता, भाई, पिता का मित्र या पति ही हो सकता है. कहानी प्रेम, सम्मान और त्याग के मुल्लमे चढ़ा कर औरत कि परम्परागत रूढ़ छवि को ही पुख्ता करती है. सुभागी स्वाभिमानी है लेकिन अपने हक की बात कहीं नहीं करती, न अपने पिता से और न ही पति के घर में. और इस स्वाभिमान और श्रम का पुरस्कार यह है कि पिता समान सजन सिंह उसे अपने बेटे कि बहु बनाने में सम्मानित महसूस करते हैं, चारों ओर से सुभागी के लिए शादी के पैगाम आने लगते हैं. इस तरह यह कहानी स्त्री की सशक्त छवि गढ़ने में मदद करने की बजाय उसे परम्परागत छवि में ही कैद करती है.
कहानी में आतंरिक असंगतियों की भी भरमार है. एक तरफ "सुभागी ने न जाने कैसे इतने रूपए जमा कर लिए थे. जब तेरहवीं का सामान आने लगा तो लोगों कि आँखें खुल गयीं." और कुछ ही देर के बाद सुभागी सजन सिंह से पूछती है कि कुल कितने रुपये खर्च हुए और वह उन रुपयों कि देनदार बन जाती है. यह दोनों बातें परस्पर असंगतिपूर्ण हैं. यदि रुपये सुभागी ने जमा किये थे तो उसे सजन सिंह को कर्ज चुकाने की क्या आवश्यकता थी.
इतना ही नहीं कहानी और कई रूढ़ियों को बढ़ावा देती है, जैसे तेरहवीं पर होने वाला भोज, मृत्यु के समय गोदान की इच्छा आदि की बातें इस कहानी में है. कहानी के देशकाल, परिस्थति के सापेख्स कुछ घटनाएं उसमे समाहित हो सकती हैं, लेकिन यदि आज उस कहानी का उपयोग पाठ्य पुस्तक में किया जाता है तो समकालीन सन्दर्भों में उस पर प्रश्न उठाए जाने की ज़रुरत है. जिस समय में प्रेमचंद ने इस कहानी को लिखा वह समय ऐसा था जब विधवा विवाह का निर्णय समाज की रूढ़ियों को तोड़ने वाला निर्णय था. आज हालात बदल गये हैं. आज भी कुछ समाजों में विधवा विवाह पर उस तरह की पाबंदियां मौजूद  हैं, लेकिन कानून ने औरतों को पिता और पति की संपत्ति में बराबर का हक़दार माना है. प्रेमचंद की ऐसी अनेक कहानियां हैं जो इससे कहीं आगे की बात करती हैं. यदि इसी कहानी को चुना भी जाना था तो अभ्यास के जरिये उन तमाम रूढ़ियों पर प्रश्न उठा सकते थे, वैसा भी कोई प्रयास यह पाठ नहीं करता. प्रेमचंद ने इससे बहुत बेहतर साहित्य लिखा है, और किसी भी महान रचनाकार की सारी रचनाएं एक जैसी स्तरीय होंगी ऐसा नहीं होता है. पाठ्य पुस्तक के लिए रचना का चयन करते समय उसके भाषा-शैली और विषय वस्तु का महत्त्व बढ़ जाता है. इस कहानी के चयन के उद्देश्य स्पष्ट नहीं होते हैं. प्रेमचंद जो अपने समय से आगे की बात करते थे, आज करीब सौ साल बाद उनकी इस तरह की रचनाओं को उपयुक्त सन्दर्भ का निर्माण किये बिना प्रस्तुत करना उनकी रचनाधर्मिता का भी उचित सम्मान नहीं कहा जा सकता.  

अकसर ही पाठों में महिलाओं का ज़िक्र उनके पति या पुरुष संबंधियों के सन्दर्भ में ही आता है. कक्षा 8 की ही किताब में एक पाठ हैं "संत कंवरराम". यह पाठ अंधविश्वास, चमत्कार और पाखण्ड को तो बढ़ावा देता ही है, स्त्रियों के प्रति भी इसका नजरिया बहुत संकीर्ण है. इसकी भाषा के अनुसार स्त्री पुरुष कि अनुगामी और कोख है. संत कंवरराम का विवाह 1903 में हुआ. पहली पत्नी काकनि बाई उनके जीवनादर्शों से प्रभावित हो कर समाज सेवा में संलग्न हो गयी. उनकी 'कोख' से एक पुत्र और दो पुत्रियों ने जन्म लिया. 1929 में निमोनिया से उनकी मृत्यु हो गयी. दो वर्ष के बाद 1931 में दूसरा विवाह गंगा बाई से हुआ और उनकी 'कोख' से भी तीन संताने हुई. सवाल यह है कि 1885 में पैदा हुए इन संत की उम्र लगभग 46 वर्ष रही होगी जब इन्होने दूसरा विवाह किया और इसके बाद तीन संतानों को जन्म देने वाली गंगा बाई क्या इनकी हमउम्र रही होंगी. उपलब्धियों के नाम पर गोदी में लेकर मृत शिशु को जीवित कर देने वाले इन चमत्कारी संत की कथा बच्चों के किन भाषाई कौशलों का विकास करती है या शैक्षिक लक्ष्यों को हासिल करने में योगदान करती है. यादि कंवराराम का और किसी तरह का सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान था तो इस पाठ से उसका पता नहीं चलता.
जैसलमेर की राजकुमारी पाठ में राजकुमारी कहती है "मैं स्त्री हूँ पर अबला नहीं हूँ. मुझमें मर्दों जैसा साहस और हिम्मत है. मैं और मेरी सहेलियां देखने भर की स्त्रियाँ हैं." यानि साहस और हिम्मत मूलतः मर्दों के गुण हैं, लेकिन जैसलमेर की राजकुमारी और उनकी सहेलियां देखने भर की स्त्रियाँ है, बाकि तो वे मर्दाने गुणों से युक्त हैं. एक तो इन किताबों में साहस सिर्फ युद्ध के क्षेत्र में काम आने वाला कोई गुण है, जीवन में और कहीं इनके अनुसार साहस कि ज़रुरत नहीं होती. दूसरे यह मूलतः मरदाना गुण है और जहाँ कोई कोई स्त्री साहसी नज़र आती है तो वह स्त्रियों में अपवादस्वरूप ही है. इसकी बानगी सुभागी में भी बार-बार मिलती है कि दरअसल सुभागी जो सब करती है वह अपवादस्वरूप ही करती है. इस पाठ में उसे और सीधे शब्दों में रेखांकित कर दिया गया है.

स्त्री के प्रति यही नजरिया कक्षा 7 के पाठ 13 "भारत की मनस्विनी महिलायें" में भी स्त्री कि इसी रूढ़ छवि को स्थापित किया गया है. दादाजी पत्र के माध्यम से अपनी पोती किरण को कहते हैं "तुम मनस्विनी महिलाओं के बारे में जानोगी, तो उनके सद्गुण अनायास तुम्हारे मन में आ जायेंगे. तुम्हारे जीवन में उनके क्रमशः समावेश से तुम्हारे उज्जवल भविष्य का पथ स्वतः प्रशस्त हो उठेगा." यह पाठ महिलाओं का अतिरेकपूर्ण महिमामंडन करते हुए कहता है "त्याग, तपस्या, शौर्य, उदारता, भक्ति, वात्सल्य, जन्मभूमि प्रेम तथा आध्यात्म चिंतन से सुधि समाज के सम्मुख उच्चादर्श प्रस्तुत करती आ रही हैं." इसे आगे बढ़ाते हुए वे पाठ में आगे कहा गया है "नारी ने ही पुरुष को गृहस्थ और किसान बनाया." इस तरह की भाषा के द्वारा स्त्री का महिमामंडन करने के बहाने यह पाठ स्त्री की भूमिका को पुरुष के सापेक्ष स्थापित करता है और उसकी भूमिका को घर-परिवार की चहारदीवारी में कैद और रूढ़ करता जाता है. इसका विस्तार पुनः हिन्दू मिथकीय पात्रों कि स्थापित करने के रूप में होता है. यह सारे पात्र गौरी "पार्वती, जिसने हिमाचल के घर में जन्म लिया और पति रूप में शिव कि प्राप्ति के लिए घोर ताप किया था. ... पार्वती नारी जाती का प्रतिनिधित्व करती है." इसी तरह सावित्री, माता अनुसूया, मारा मदालसा, गार्गी और मैत्रेयी, राजा दशरथ की रानी कैकेयी, सीता, रानी भवानी, अहल्याबाई, लक्ष्मी बाई, रामकृष्ण परमहंस कि पत्नी शारदा माई पर आ कर रुक जाता है. स्त्री छवि को रूढीबद्ध करने वाले और हिन्दू परंपरा को बढ़ावा देने वाला यह पाठ भी शिक्षा के उद्देश्यों, समावेशी शिक्षा और संविधान के मूल्यों के विरुद्ध नज़र आता है. इन महिलाओं के सन्दर्भ में दादाजी का यह कहना कि हैं "तुम मनस्विनी महिलाओं के बारे में जानोगी, तो उनके सद्गुण अनायास तुम्हारे मन में आ जायेंगे. तुम्हारे जीवन में उनके क्रमशः समावेश से तुम्हारे उज्जवल भविष्य का पथ स्वतः प्रशस्त हो उठेगा." इस किताबों को पढ़ने वाली बालिकाओं पर भी एक खास तरह ही भूमिका को स्वीकाराने का नैतिक दबाव बनता हुआ सा नज़र आता है, जो उनके समानता के मौलिक संवैधानिक अधिकार का हनन करता है. पाठ के अंत में सूक्तिवाक्य है "एक नारी कि ज़िन्दगी वत्सलता का इतिहास है" यह पुनः उसी मूल्यबोध को स्थापित करता है.
स्त्री के प्रति यह नजरिया कक्षा 1 में शुरू होता है जिसमें औ से औरत पढ़ाते हुए उसे ममता की मूरत बताया है "औरत ममता की मूरत है, भोली-भाली सूरत है". यह भोली-भाली सूरत, ममता की मूरत आगे चल कर इन कहानियों में त्याग, बलिदान की मूर्ति बनती जाती है.   




स्त्री के प्रति इस नज़रिए का वीभत्स उदाहरण देखने को मिलता है कक्षा 6 की किताब मुंडमाल में. सरदार चुंडावत, जिनकी उम्र खुद 18 वर्ष से कम है, युद्ध में जाने को तैयार खड़े हैं तभी झरोखे में खडी अपनी नवोढ़ा पत्नी पर उनकी नज़र पड़ती है. हाडा वंश की सुलक्षणा, सुशीला और सुन्दर सुकुमारी कन्या – यानि तमाम विशेषणों के बावजूद अब तक इस स्त्री का नाम नहीं बताया गया है. इसी तरह "रूपनगर के राठौड़ वंश की राजकुमारी" का भी कोई नाम नहीं हैं. इस राजकुमारी की रक्षा के लिए जाने वाले सरदार चुण्डावत का अपनी रानी को देख कर चित्त चंचल हो रहा है. अंततः हाड़ी रानी अपना सर कलम कर सरदार को भेंट कर देती है ताकि सरदार उसके 'तुच्छ शरीर' से ध्यान हटा कर युद्ध में ध्यान दे सकें. एक तरह यह कहानी हर लिहाज से आपत्ति जनक है. इसमें व्यक्त भावनाएं छठी कक्षा के बच्चों की उम्र और समझ के स्तर के लिहाज से सर्वथा अनुपयुक्त हैं. इस पाठ में सतीत्व का महिमामंडन है जो सती कानून का खुला उल्लंघन है. इस विषयवस्तु को कक्षा 6 की किताब शामिल करना पाठ्यचर्या में बताये गए शैक्षिक सिद्धांतों का उल्लंघन तो है ही, सती प्रथा का महिमामंडन, बाल विवाह को स्थापित करना और स्त्री के प्रति रूढ़ धारणाओं को ही स्थापित नहीं करता बल्कि उसके प्रति हिंसा को भी बढ़ावा देता है. पाठ के अंत में चुंडावत रानी के कटे हुए शीश को गले में लटका कर युद्ध के लिए चल पड़ता है, यह दृश अत्यधिक वीभत्स दृश की रचना करता है. कक्षा छह के बच्चों के मस्तिष्क पर यह बिम्ब किस तरह का असर डालेगा, यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए. 
यह कहानी लड़कियों में अपने आप को लेकर एक ऐसी आत्मग्लानी को बढ़ावा देती है कि हाड़ी रानी खुद ही अपना सर काट कर दे देती है. यह कैसी कर्त्तव्य निष्ठा है? यह कैसा साहस है? यह कैसा प्रेम है? क्या यह ऐसा है तो उसे गौरव की तरह प्रस्तुत किया जाना चाहिए या उस पर प्रश्न उठाए जाने चाहिए? खासतौर से ऐसे समय में जब लड़कियों पर एसिड अटैक हो रहे हैं, जब उनके प्रति हिंसा और बलात्कार की घटनाएँ अखबारों में छाई हैं, ऐसे समय में स्त्री और पुरुष संबंधों की किन छवियों का निर्माण पाठ्य पुस्तक को करना चाहिए? किताब एक तरफ विज्ञापन छापती है "बेटी बचाओ, बेटी पढाओ" और दूसरे और अपनी विषय-वस्तु के जरिये एक भिन्न छवि का निर्माण करती है. 

- देवयानी भारद्वाज 

Friday, 24 June 2016

राजस्थान की अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा

(अंग्रेजी पाठ्यपुस्‍तकों की अंग्रेजी में पोस्‍ट की गई समीक्षा का भाषान्‍तर प्रस्‍तुत है)

भाग I

यह समीक्षा तीन भागों में प्रस्‍तुत की जाएगी क्‍योंकि इन किताबों के बारे में बहुत कुछ कहने को है ...

सिद्धांत व नज़रिया

पाठ्यपुस्‍तकें अपनी भूमिका में यह दावा करती हैं कि यह राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) 2005 की पालना करती हैं। हालांकि नीचे दिए गए बिन्‍दुओं को देखने पर पता चलता है कि वे उसकी पूरी तरह अवहेलना करते हुए उसके सिद्धांतों व नज़रिए को सिर के बल खड़ा कर देती हैं। वे सीखने का किसी प्रोत्‍साहन का परिणाम मानती हुई रटाई को प्रोत्‍साहन देती हैं और सीखने को समग्र की बजाए बहुत छोटे-छोटे अंशों में देखती हैं और शिक्षण को बारंबार अभ्यास व घोटा लगाते हुए व्‍यवहार में बदलाव के तौर पर स्‍थापित करती हैं।

भूमिका/आमुख 

क्‍या उद्देश्‍यों को निचले स्‍तर पर ले जाना इसका जवाब हो सकता है ?

आमुख में आरंभिक शिक्षा के स्‍तर पर अंग्रेजी सिखाने के पीछे यह तर्क दिया गया है अंग्रेजी हमारी आम बोल-चाल की भाषा है। पाठ्यपुस्‍तकें छात्रों को अंग्रेजी सीखने से संबंधित सभी क्षेत्रों में सक्षम बनाती हैं। आगे इन क्षेत्रों को इस प्रकार व्‍याख्‍यायित किया गया है - सुनना, बोलना, पढ़ना व लिखना।
किन्‍तु एनसीएफ 2005 द्वितीय भाषा सीखने के उद्देश्‍यों को दोहरे स्‍तरों पर व्‍याख्‍यायित करता है। पहला स्‍वाभाविक भाषा की तरह प्रवीणता हासिल करना और दूसरा अमूर्त स्‍तर पर विचार कर पाने व ज्ञान हासिल कर पाने के साधन के तौर पर। एनसीएफ इससे आगे बढ़कर यह भी कहता है कि भाषा सब कुछ सीखने का स्रोत है, यह समझ विकसित करने व ज्ञान रचने का माध्‍यम है। तो फिर क्‍या हम एक राज्‍य के तौर पर सबको उच्‍च शिक्षा हासिल करने के लिए परिस्थितियाँ उपलब्‍ध नहीं करवा पाने की अपनी अक्षमता पर पर्दा डाल रहे हैं?
अगर भाषा शिक्षण (इसमें उच्‍च्‍ शिक्षा का माध्‍यम अंग्रेजी भाषा भी शामिल है) का उद्देश्‍य यह है तो फिर राजस्‍थान ने अपने उद्देश्‍यों को इतना नीचे क्‍यों तय किया हुआ है कि उनसे भाषा की आधारभूत क्षमताएँ हासिल की जा सकती हों और उसका इस्‍तेमाल आम बोल-चाल में‍ किया जा सकता हो ? इसके पीछे क्‍या रहस्‍य है? या फिर ऐसा होने की वजह यह है कि यह राज्‍य पाठ्यपुस्‍तक मंडल की किताबें हैं और इन्‍हें केवल वंचित समुदायों के बच्‍चे पढ़ते हैं। अगर ऐसा है तो क्‍या हम इन छात्रों को उच्‍च शिक्षा में बराबर भागीदारी के अवसरों से व आर्थिक सशक्तिकरण से बेदखल नहीं कर रहे हैं ?
यह किताबें निम्‍न मुद्दों पर इनके लेखकों की मान्‍यताओं को उजागर करते हुए क्‍या-क्‍या कहती हैं ?

पाठ्यपुस्‍तकों में बालक व बचपन को लेकर मान्‍यताएँ

बच्‍चे अपूर्ण वयस्‍क होते हैं और उनके आस-पास मौजूद वयस्‍कों की जिम्‍मेदारी है कि उन्‍हें नैतिकता सिखाएँ अस्‍सी प्रतिशत पाठ सीधे-सीधे बच्‍चें को नैतिकता सिखाते हुए कहते हैं :
बच्‍चों को पानी बर्बाद नहीं करना चाहिए, उन्‍हें साफ-सुथरा रहना चाहिए, उन्‍हें दूसरों की मदद करनी चाहिए आदि उपदेश देने में कोई बुराई नहीं है किन्‍तु क्‍या अंग्रेजी भाषा की किताब का उद्देश्‍य यही है, और क्‍या उपदेश देने व नैतिकता शिष्‍टाचार सिखाने से बच्‍चे बेहतर मनुष्‍य बन जाते हैं?
एनसीएफ 2005 साफ तौर पर यह कहता है कि बच्‍चे सचेतन रूप से ज्ञान का निर्माण खुद करते हैं। उन्‍हें अनुभवों व चर्चा के जरिए अवधारणों के बारे में खुद अपने निर्णय लेने की जरूरत होती है। ‘बाल केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है कि बच्‍चों के अनुभवों, उनकी राय व सक्रिय भागीदारी को प्राथमिकता दी जाए। हमें उनकी सक्रियता व रचनात्‍मकता को विकसित करने की जरूरत होती है। अच्‍छे बच्‍चे की अवधारणा का जोर उन्‍हें शिक्षक का आज्ञापालक बनाने पर होता है, इसमें नैतिक चरित्र तथा ज्ञान की सत्‍ता के तौर पर शिक्षक की कही बातों को मानने पर बल होता है।‘ 
कक्षा III की किताबों में 15 पाठ हैं इनमें से 7 पाठ बच्‍चे को एक ऐसे अनघढ़ प्राणी के तौर पर देखते हैं जो गलत काम करता रहता, उसे सही व्‍यवहारों के हथौड़े से गढ़ते हुए नैतिकता व शिष्‍टाचार सिखाना है। नीचे कक्षा III की किताब से पाठों के कुछ उदारहण दिए जा रहे हैं :

-          Work while you work – teaching the child time management (बच्‍चों को समय प्रबंधन सिखाता है)
-          A Smile with a Blessing – helping others (दूसरों की मदद की सीख)
-          Good Habits
-          Swach Bharat Abhiyan – cleanliness (स्‍वच्‍छता के बारे में)
-          Traffic Lights – Road sense (सड़क पर चलने के नियमों के बारे में)
-          Life Echoes – love and hatred (प्‍यार और नफरत के बारे में)
-          Ant and the Hunter - gratitude (कृतज्ञता/आभार के बारे में)
कक्षा III में दिए गए अभ्‍यासों का जोर यह लिखवाने पर है कि कौनसा व्‍यवहार सही है और कौनसा गलत। पृष्‍ठ 32 व 33 इसके नमूने हैं। चित्र को देखकर सवाल पढ़ो और जवाब दो।
-          Don’t play in the rain. No, I won’t. (बारिश में मत खेलो। ठीक है मैं नहीं खेलूँगा)
-          Don’t tease animals. No, I won’t. (पशुओं को तंग मत करो। ठीक है मैं नहीं करूँगा)
-          Don’t pluck flowers. No, I won’t. (फूलों को मत तोड़ो। ठीक है मैं नहीं तोड़ूँगा)

क्‍या हम ‘क्‍या करना ठीक है’ यह बता देने मात्र यह विचार करना सीख जाते हैं कि कोई काम क्‍यों करना चाहिए और कोई काम क्‍यों नहीं करना चाहिए ? उपदेश देने से और सही गलत बता देने से केवल व्‍यवहार के स्‍तर पर बदलाव आता है, क्‍या इससे हमारी सोच में भी बदलाव आता है ? दूसरी बात कि क्‍या कक्षा III का उद्देश्‍य मात्र यही सिखाना है और क्‍या 15 में से 7 पाठ ‘सही और गलत’ सिखाने पर लगा दिए जाने चाहिए ? क्‍या यह बेहतर नहीं होता कि बच्‍चों को समूहों में अपनी मातृ भाषा में चर्चा करने के मौके दिए जाते और वे अपने विचार रख पाते, शिक्षक उनकी अंग्रेजी में जवाब देने में मदद करते। स्‍वतंत्र अभिव्‍यक्ति, अपने मत को जाहिर करने का अधिकार (अस्‍वीकृत मत को भी), चर्चा करना, विचार व तर्क करना आदि के लिए अभ्‍यास बनाना क्‍या असंभव है या फिर यह कहें कि हममें ऐसा करने की काबिलियत नहीं है।

भाषा सीखना कौशल विकसित करना है

भाषा सीखना, सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना व व्‍याकरण सीखना जैसे कुछ कौशलों को विकसित करने का मामला है। और इसे सिखाने के लिए चित्रों व शब्‍दों के जरिए घोटा लगवाने व बारंबार अभ्‍यास करवाने की पद्धति का इस्‍तेमाल किया गया है। सीखने के लिए बच्‍चे को शिक्षक के पीछ-पीछे दोहराने की जरूरत होती है और इसीलिए कक्षा 4 के बाद हर पाठ की गतिाविधि 2 में बच्‍चे को शिक्षक के पीछे शब्‍द दोहराने का काम दिया गया है। ऐसा क्‍यों है कि थीम आधारित ऐसी कोई गतिविधियाँ नहीं है जिनमें अवधारणाओं का निर्माण करते हुए शब्‍दों के अर्थों तक पहुँचने के लिए शब्‍दों पर काम हो, खेल हो, समूह में काम करना हो ? इतना दबाव व रटाई क्‍यों ?  क्‍या हमारा मानना यह है कि हम इतना सब इसलिए सीख जाते हैं या याद रख पाते हैं क्‍योंकि हम रटाई करते हैं या घोटा लगा-लगाकर याद करते हैं जबकि संज्ञानात्‍मक व न्‍यूरोलॉजिकल शोध बताते हैं कि दिमाग विचारों का नेटवर्क है और हम उनके बीच संबंध बना-बनाकर ही सीखते हैं।

अंश से समग्र तक

यह किताबेंयह भी मानती हैं‍ कि बच्‍चा भाषा छोटे-छोटे अंशों से सीखना शुरू करता है ओर बाद में विस्‍तृत रूप में सीखता है। इसीलिए कक्षा I की किताब के पाठों में वर्णमाला लिखना सीखने पर जोर दिया गया है व लिखना सीखने पर 45 पृष्‍ठ लगाए गए हैं यानी हर वर्ण के लिए एक पृष्‍ठ। छोटे, बड़े वर्ण व पैटर्न बनाने पर दिए काम को शामिल कर लें तो बच्‍चों को कक्षा एक की किताब में कुल 155 शब्‍दों को दोहरान करना है। तथा इन शब्‍दों के बीच किसी तरह का कोई आपसी संबंध नहीं है सिवा इसके कि वे ए, बी, सी आदि वर्णों से शुरू होने वाले शब्‍द हैं। कक्षा I की किताब में 15 कविताएँ हैं किन्‍तु बच्‍चों में ध्‍वनि सजगता लाने के लिए कौन-कौनसी गतिविधियाँ करवाई जानी है इस संबंध में शिक्षक के लिए किसी प्रकार के निर्देश नहीं दिए गए हैं। बच्‍चे को वर्णमाला के इन 45 पृष्‍ठों को लिखने में मेहनत लगानी है और 155 शब्‍दों को रट्टा मार-मारकर याद करना है। इन शब्‍दों के साथ 50 चित्र भी दिए गए हैं। इनपुट रिच वातावरण की यह काफी अजीब सी व्‍याख्‍या है। इनपुट रिच वातावरण का अर्थ होता है कि बच्‍चे शब्‍दों को सार्थक तरीकों से सीखें। यह सच में बोधगम्‍य इनपुट की बहुत ही अजीब व विकृत व्‍यवाख्‍या है।
कक्षा II  की शुरुआत पूरे टैक्‍स्‍ट के सा‍थ होती है। यानी हम सूक्ष्‍म (वर्णमाला) से विस्‍तृत की ओर बढ़ रहे हैं। किन्‍तु यह एनसीएफ 2005 के उल्‍लंघन है जहाँ कहा गया है कि बच्‍चों को ऐसे इनपुट रिच वातावरण की जरूरत होती है जिसमें संवाद का वातावरण हो और दिया जाने वाला इनपुट समझ में आने वाला हो। टैक्‍स्‍ट इनपुट को छोटे अंशों में तोड़ देता है और फिर से उन्‍हें टैक्‍स्‍ट में एक साथ रख देता है। इसलिए कक्षा I में और कुछ हद तक कक्षा II में बच्‍चें से वर्णमाला का घोटा लगवाया जाता है और फिर यह उम्‍मीद की जाती है कि इसके बाद वह श्‍ब्‍दों को लिख सकता है। कक्षा II और III में छोटे शब्‍दों को लिखने संबंधी कोई अभ्‍यास नहीं दिया गया है। बच्‍चे के पूर्वज्ञान पर कोई ध्‍यान नहीं दिया गया है ना ही उसकी दुनिया को कक्षा में शामिल करने पर ध्‍यान दिया गया है। कक्षाII से बच्‍चे को उपदेश देना शुरू कर दिया गया है। 

पियाजे को कब्र में दफना दिया

कक्षा II में शुरूआत फिर से लिखने से होती है और 6 पृष्‍ठ अक्षर पहचान तथा वर्ण व शब्‍द लिखने पर लगाए गए हैं। स्‍वामी वि‍वेकानन्‍द के पाठ से शुरुआत होती है जिसमें 7 वाक्‍यों में parliament, religions, represented, platform, cultureaudience जैसे 6 मुश्किल व जटिल शब्‍द शामिल हैं। एनसीएफ 2005 द्वारा प्रामाणिक टैक्‍स्‍ट लिए जाने संबंधी दिए गए सुझाव की इस व्‍याख्‍या पर सिर्फ हैरानी ही जताई जा सकती है। इस टैक्‍स्‍ट के लेखकों को पियाजे के सिद्धांतों को पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए कि जब बच्‍चा कोंक्रीट ऑप्रेशनल अवस्‍था में होता है तो वह क्‍या करने में समर्थ होता है और क्‍या नहीं।

वर्णमाला पद्धति

कक्षा III के बाद ध्‍वनियों पर करवाया गया काम प्रचुर मात्रा में है जबकि शोध बताते हैं कि इस तरह का काम कक्षा I से III तक करवा लिया जाना चाहिए। एनसीएफ 2005 कहता है कि शुरुआती सालों में बच्‍चों के आस-पास मौखित व लिखित भाषा का वातावरण का होना जरूरी होता है (पृष्‍ठ 39, Input rich communicational environments)। ऐसा होने से भाषा सीखना शुरू हो जाता है। लेकिन ऐसे वातावरण में जहाँ बच्‍चों का 80 प्रतिशत समय अपना सिर झुकाए वर्ण व कुछ शब्‍द लिखने पर बर्बाद हो रहा हो वहाँ भाषा सीखना कैसे शुरू हो सकता है ?

बच्‍चे की आवाज कहाँ है ? मूल्‍यों के लिए बहुलता की बलि

गतिविधि के अंतर्गत दिए गए सभी सवाल तथ्‍यों की जाँच करते हैं और उनके जवाब में ‘सही’ जवाब की देने की उम्‍मीद की जाती है। 99 प्रतिशत सवाल एक ही जवाब वाले हैं एक से ज्‍यादा जवाब वाले सवाल लगभग नहीं हैं। एनसीएफ 2005 के लिए अंग्रेजी पर तैयार किया गया पोजिशन पेपर यह स्‍पष्‍ट सुझाव देता है कि बच्‍चों को उनके विचार व्‍यक्‍त करने, उनकी रुचियों को जाहिर करने, उनकी पसंद-नापसंद को जाहिर करने व अपनी राय देने के मौके प्रचुर मात्रा में दिए जाने चाहिए।
एनसीएफ 2005 कहता है कि पारंपरिक कक्षा में बच्‍चा तभी बोलता है जब वह या तो शिक्षक के किसी सवाल का जवाब दे रहा होता है या शिक्षक की कही बात को दोहरा रहा होता है। उनके पास खुद कुछ करने के अवसर व पहल करने के मौके लगभग ना के बराबर होते हैं।
गतिविधि 1 में दिए गए सवालों के कुछ नमूने यहाँ दिए जा रहे हैं :
1.       Class III Page 13 What was the old woman carrying, Who helped the old lady stand? Where did Meera throw the banana peel? What did the old lady give to Meera?
2.       Class IV page 13 What did Ram make for his project? Who took Prakash to hospital and why? Who helped Ram in joining the school? Why could not Prakash play the match? How did Prakash realise Ram’s pain?
3.       Class V page 13 Why does the poet say we are not afraid? Which line in the song tells you that the poet is not living peacefully in the present? How do you feel when you sing this song?
4.       Class VI page 13 At last… This line is said by … Who gave advice to the son?
5.       Class VII page 13 Which trees were being cut down by the royal people and why? Who was the supervisor of the team? Who lost their lives and why? How did Amritadevi protest? What did Maharaja Abhay Singh do when he came to know about the massacre?
6.       Class VIII page 10 Where did the animals usually assemble? What did the animals do in their fun time? When did the animals show their anger? Who was Nivedita? How did the animals feel happy? Why did the cages look empty?
यहाँ दिए गए 25 सवालों में से केवल एक सवाल ऐसा है जिसके एक से ज्‍यादा जवाब हो सकते हैं और जो बच्‍चों को उनकी राय व विचार रखने का मौका देता है। बाकी सभी सवाल पाठ में मौजूद केवल एक जवाब देने की माँग करते हैं। क्‍या समझ का आशय केवल पाठ में दी गई सूचना को ईमानदारी के साथ ज्‍यों का त्‍यों देाहरा देना भर है ? क्‍या समझ के अंतर्गत विचार करना, थीम्‍स के बारे में सोचना उन्‍हें बच्‍चे की दुनिया के साथ जोड़ना आदि शामिल नहीं है ?

रूढ़ छवियाँ या स्‍टीरियोटाइप्‍स

पाठ्यपुस्‍तक एक खास नज़रिए वाली रूढ़ छवियों या स्‍टीरियोटाइप्‍स को ही और अधिक स्‍थापित करती हैं: 
कक्षा 4 की पाठ्यपुस्‍तक के पृष्‍ठ 64 पर दी गई गतिविधि 4 में दिए गए इस अभ्‍यास पर एक नज़र डालते हैं

Stereotypes

I was doing my homework. My mother ______ (cook) food. My sister __________ (play). My father ________ watch TV. My grandmother ____________ (sing) hymns. Our servant ________ arranging things in the drawers.

किताबों की कहानियाँ यह बताती हैं कि गरीब आदिवासी बच्‍चे त्‍याग कर रहे हैं तथा अमीर आदिवासी बच्‍चे असभ्‍य या दंभी होते हैं। 

-          भाषांतर :  प्रमोद पाठक  

Wednesday, 22 June 2016

Review of English Language Text Books of Rajasthan

Part I

This review will be presented in a series of three innings as there is a lot to say…
Philosophy and Approach
The new text books claim in the preface that they are following the National Curriculum Framework 2005. However, given below are the points where they completely overturn the philosophy and approach of NCF 2005, in total contravention of the  constructivist approach to learning going back to an era of learning as a response to a stimulus, promoting rote, breaking learning into atomic bits and teaching as bring about a change in behavior through practice and drill.
The Preface
Can lowering the aims be the answer?
The preface states the rationale for learning English in the State in elementary schools, it says that English is our lingua franca. It says that the text book ‘makes students competent in all areas of learning in the English Language and states these areas as: listening, speaking, reading and writing’.
But the NCF 2005 states that the goals for second language learning are twofold: an attainment of a basic proficiency such as is required in natural language learning and the development of language into an instrument of abstract thought and knowledge acquisition. It further goes on to say that language is a source of all learning, a medium of understanding and creating knowledge. Or are we as a state masking our inability to provide enabling conditions for equal access to higher learning?
If this is the aim of all language learning (including English, which is the medium of all higher studies) why does Rajasthan aim so low: to achieve only a basic proficiency in the language so that it can be used as a lingua franca? What is the mystery behind this? Or is it because these are State Board text books where children of marginalized communities study that we keep our objectives to the minimal level? Aren’t we then depriving the learner of unequal access to higher education and to economic empowerment?

What do the text books tell us about the assumptions of the writers about the following?
Assumptions about Children and Childhood in the text books
Children are considered as imperfect adults. It is the duty of the adults around them to teach them morals. Eighty percent of the lessons are directly teaching children:
Children must not waste water, they must be clean, they must help others etc. There is no harm in preaching. However is this the objective of the English language text book, and do children become better human beings by preaching and moralizing?
NCF 2005 explicitly states that children are cognitively constructing knowledge. They need to make their own decisions about concepts by through experience and discussion. ‘Child centred pedagogy means giving primacy to childrens’ experience, their voices and their active participation. Our (traditional) pedagogical practices focus on the socializing of children and on the receptive features of children’s learning. Instead we need to nurture and build on their active and creative capabilities. Frequently the notions of ‘good’ student that are promoted emphasize obedience to the teacher, moral character and acceptance of the teacher’s words as authoritarian knowledge’.
The class III text book has 15 lessons out of which seven treat the child as if she were an unformed creature, likely to be swayed to do wrong and has to be taught morals through a hammering of the ‘right behaviour’. Given below are a sample of lessons from Class III text book which do this:
-          Work while you work – teaching the child time management
-          A Smile with a Blessing – helping others
-          Good Habits
-          Swach Bharat Abhiyan – cleanliness
-          Traffic Lights – Road sense
-          Life Echoes – love and hatred
-          Ant and the Hunter - gratitude
Throughout Class III the exercises concentrate on writing what is bad and incorrect behavior. Pages 32 and 33 are a sample. Look at the picture read the question and reply.
-          Don’t play in the rain. No, I won’t.
-          Don’t tease animals. No, I won’t.
-          Don’t pluck flowers. No, I won’t.
Does saying what is ‘the right thing to do’, lead to thinking why we should do this or that? Preaching and ensuring right or wrong will only lead to behavioural change will it change the mind? Secondly is this the only objective of Class III that seven out of fifteen lessons should be devoted to cultivating the ‘right habits’? Wouldn’t it have been better if the students had been given the opportunity to discuss in groups, in the mother tongue and respond with their thoughts, while the teacher could help them respond in English. Free expression, the right to voice one’s opinions (even unacceptable ones), to be discuss, rationalize and think through – is it impossible to create such exercises or should we say that we are not equipped to do so.
Language learning is skill development
Language learning is about learning a set of skills: listening, speaking, reading writing and grammar. The approach is through drill and practice using pictures and words. The child must repeat after the teacher to learn, so activity 2 after every lesson requires the child to repeat words after the teacher from class 4 onwards. Why is it that there are no theme based activities with vocabulary, games, and group tasks to arrive at the meaning of the words through concept formation? Why this stress on drill? Do we believe that we learn everything, remember everything because we learn it by heart when cognitive and neurological research tells us that the mind is a network of ideas and we learn by making connections between concepts.
From the part to the whole
The text books also assume that a child learns language in atomic bits, from the smallest bit to the largest bit. Therefore classes I consists of learning how to write the alphabet:a total of 45 pages of writing, one for every letter of the alphabet, big and small, including pattern practice,155 words to be repeated by the children in one book of class one! And no connection between these words that would aid them to be remembered except that they begin with the alphabet a, b, etc. There are 15 poems in class I but no instructions to the teacher for doing activities to increase the phonemic awareness of children. The child goes through the drudgery of writing 45 pages of repeated alphabet and learns 155 words by heart, albeit there are about 50 pictures accompanying them! This is a very strange interpretation of input rich environment. Input rich environment means that children learn words in meaningful ways. This is definitely an amazingly skewed interpretation of comprehensible input with about 15 poems thrown in for solace.
In class II we begin with full-fledged texts. So we go from the smallest i.e. the alphabet to the biggest i.e. texts, but this is in contravention to the NCF 2005 which states that children need to have an input rich communicational environment and the input should be comprehensible input. The texts break the input into pieces and put them together in texts. So in class I and some part of class II we expose the child to drills in the alphabet and it is assumed that children can now write words. There is no practice of writing small words in class II and III. There is no awareness that the child’s previous knowledge, her world should be brought into the class room, for from class II we begin to preach the child.
Piaget turns in his grave
In class II we begin with writing again, 6 pages of identification and writing of letters of the alphabet and words. Beginning with a lesson about Swami Vivekanand which contains words like parliament, religions, represented, platform, culture and audience, 6 large and complex words in seven sentences. We wonder at this interpretation of authentic texts that the NCF 2005 recommends! The writers of the texts need to look into the Piagetian principles of what a child can do at the concrete operational stage.
Phonic Approach?
Phonics drills abound in Classes III onwards whereas research in phonics and phonemic awareness tells us that this is what should be done in classes I to III. The NCF 2005 states that children need to have an environment of the spoken and written language around them in the first few years (pg. 39 Input rich communicational environments). This initiates the processes of acquisition. How can the processes of acquisition be initiated when children are bending their heads throughout classes I to III reading and writing the alphabet and a few words for 80% of the time?
Where is the voice of the child? Sacrificing plurality on the altar of values
All the questions under Activity I  test facts and all the answers are scaffolded by indicating ‘right’ answers. Ninety-nine percent of the exercises have one answer, there are almost no questions which are open ended in the text books. The position paper for English, N C F 2005 unequivocally exhorts that children need to be given ample opportunities to respond with their own ideas, talk about their own interests, likes and dislikes and opinions.
NCF 2005 says that in the traditional text books when children speak, they are only answering the teacher’s questions or repeating the teacher’s words. They rarely do things, nor do they have opportunities to take initiative.
Let us look at a set of sample questions from activity I
1.       Class III Page 13 What was the old woman carrying, Who helped the old lady stand? Where did Meera throw the banana peel? What did the old lady give to Meera?
2.       Class IV page 13 What did Ram make for his project? Who took Prakash to hospital and why? Who helped Ram in joining the school? Why could not Prakash play the match? How did Prakash realise Ram’s pain?
3.       Class V page 13 Why does the poet say we are not afraid? Which line in the song tells you that the poet is not living peacefully in the present? How do you feel when you sing this song?
4.       Class VI page 13 At last… This line is said by … Who gave advice to the son?
5.       Class VII page 13 Which trees were being cut down by the royal people and why? Who was the supervisor of the team? Who lost their lives and why? How did Amritadevi protest? What did Maharaja Abhay Singh do when he came to know about the massacre?
6.       Class VIII page 10 Where did the animals usually assemble? What did the animals do in their fun time? When did the animals show their anger? Who was Nivedita? How did the animals feel happy? Why did the cages look empty?
Out of the 25 questions listed here only one question is open ended and gives an opportunity to children to express their opinions or ideas. All the other questions demand one textual answer. Is comprehension limited to faithfully repeating textual information? Doesn’t comprehension imply thinking about the ideas, themes and connecting them with the world of the child?
Stereotypes
The text book perpetuates stereotypes belonging to a particular world view:
Look at this task from page 64 activity 4 of the class 4 text book
I was doing my homework. My mother ______ (cook) food. My sister __________ (play). My father ________ watch TV. My grandmother ____________ (sing) hymns. Our servant ________ arranging things in the drawers.
The stories tell that tribal poor children are sacrificing, tribal rich children are snobbish.


Saturday, 18 June 2016

गलतियों का पुलिंदा है कक्षा 3 की हिंदी की किताब

कक्षा 3 की  हिंदी कि किताब मानो गलतियाँ करने में खुद से ही होड़ करने में लगी है. इस किताब में छापे की गलतियाँ ज्यादा बड़ी हैं, वर्तनी की, तथ्यों की, अवधारणाओं की या शिक्षण विधियों की, कहना कठिन है. इस किताब के हमें दो रूप देखने को मिले, जिनमें से एक में प्रिंटिंग की गंभीर खामियां हैं। इसमें 33 से 59 तक पेज उल्टे-सीधे लगे हैं। पेज 33, 37, 40, 52, 53 और 56 गायब हैं और पेज 41 से 48 तक के पृष्ठ दो-दो बार छपे हैं। इसके चलते पृष्ठों के क्रम और पाठ्यचर्या गड़बड़ा गई है। पाठ की निरंतरता टूट जाती है। जैसे पेज 32 पर दिया गया पाठ "कलाकार का असंतोष" अधूरा छूट गया है. ढूंढने पर तीन-चार पृष्ठ के बाद पेज 34 मिल जाता है लेकिन पेज 33 की जगह एक और अधूरा पाठ दिया हुआ है. इस गड़बड़ी के चलते अनुक्रमणिका के हिसाब से "गीत यहाँ खुशहाली के" का पेज 37 की जगह 38 पर नज़र आता है। पेज 37 तो लापता है। "मैं सड़क हूं" पाठ दो बार छपा नज़र आता है। यह गलतियां केवल बाइण्डिंग की ही नहीं है। पेज प्रकाशित ही इस तरह हुए हैं कि एक ही पन्ने पर आगे और पीछे की पृष्ठ संख्या में उलट-फेर है. पता लगाना जरूरी है कि इस तरह की कितनी पुस्तकें गलत प्रकाशित हुई हैं। कहीं ऐसा न हो कि यह गड़बड़झाले की पुस्तकें ही वितरित भी हो जाएँ.

इतना ही नहीं वर्तनी कि गलतियों की भी इस किताब में भरमार है. एक ही पाठ में कई शब्दों को कहीं तो नुक्ता लगा कर लिखा गया है और कहीं नुक्ते के बिना - जैसे पट्टेबाज या पट्टेबाज़, फैजाबाद या फैज़ाबाद। बिंदी की तो खूब ही गलतियां हैं - एकवचन को बहुवचन या बहुवचन को एकवचन बना दिया गया है। यहां को यहा, थी को थीं लगी को लगीं। धागो, सड़के, तुम होंगे और भी न जाने क्या-क्या। मात्रा की गलतियां भी नजर आ जाती हैं- "कठपुतली धागों से अंगुलियों के सहारे कठपुतलियों को कैसे नचाता है।" यहां कठपुतली के बाद "वाला" शब्द गायब है। पीर की कब्र की जगह पीर "का" कब्र, भारत के आजाद "होने" के दिन। कोई पूछे इनसे देश की आजादी के कितने दिन हैं। ड और ड़ में भी बहुत गफलत पैदा की गई है जैसे झाडू, लडूंगी, पंचकुण्ड़ों आदि। दीर्घ ई को ह्रस्व बना कर लिख दिया है जैसे "कोइ"। 

किताब का स्वरुप छोटे बच्चों कि पाठ्यपुस्तक की बजाय सरकार के प्रचार पेम्फलेट सा अधिक नज़र आता है. मुख्य आवरण पृष्ठ पर हल बैल और किसान का चित्र है। दूसरे यानी अंदर वाले आवरण पृष्ठ पर कृमि से मुक्ति बच्चों की शक्ति का विज्ञापन है। तीसरे आवरण पृष्ठ पर विद्याथियों के लिए लाभकारी योजनाएं और सुरक्षा बीमा योजना के विज्ञापन हैं। जबकि अंतिम आवरण पर राजकीय विद्यालय में उपलब्ध सुविधाओं की सूचना है। बच्चों की पुस्तक में जिस तरह के रुचिकर और आकर्षक चित्रों होना चाहिए था इस पुस्तक में इसका पूर्ण अभाव नजर आता है। इन योजनाओं की जानकारी पाठ्य पुस्तक में दे कर सीखने-सिखाने में यह किताबें क्या योगदान करना चाहती हैं?  




इस पुस्तक कुछ पाठ ऐसे है जो पिछली पाठ्य-पुस्तक "रुनझुन" से लिए गये  हैं. ऐसे पाठ हैं "मैं सड़क हूं", "काठ की पुतली नाचे गाए" और "अजमेर की सैर"। इन तीनों पाठों को भी एक ही तरह से नहीं बरता गया है. चित्र तो सभी पाठों के बदले गये हैं लेकिन प्रत्येक पाठ की विषयवस्तु में बदलाव का स्वरुप भिन्न है. 

  • "मैं सड़क हूँ" पाठ की विषयवस्तु में कोई बदलाव नहीं है, लेकिन तस्वीरों में बदलाव जेंडर विभेद को बढ़ावा देता हुआ सा नज़र आता है. पुरानी किताब में सड़क की तस्वीर को जीवंत बनाने के लिए आँखें दर्शायी गयी थीं, लेकिन इस किताब में ललाट के बीचो-बीच बिंदी लगा कर उसे स्त्री बना दिया गया है. एक पितृसत्तात्मक समाज में सड़क को स्त्री के रूप में प्रदर्शित करने के निहितार्थों के प्रति पाठ्यपुस्तक से इस तरह की लापरवाही की अपेक्षा नहीं रखी जाती.


  • पाठ "अजमेर की सैर" की विषयवस्तु को बदला गया है। इसमें से उर्स के दौरान रहने वाले उत्सव के माहौल और ढाई दिन के झोंपड़े के उल्लेख को हटा कर अचानक पुष्कर की सैर को शामिल कर दिया है. यह पाठ दो बच्चों के स्वाभाविक संवाद से निकल कर अचानक ही इतिहास के तथ्यों को उछालने लगता है, और उनमें भी सटीकता का अभाव है. और तो और पाठ से जो अंश संपादित कर दिए गए हैं, अभ्यास के प्रश्नों में उनसे सम्बंधित प्रश्न भी पूछ लिए गए हैं.


नई पुस्तक में कहीं लेखकों या पिछली पुस्तक का उल्लेख तक नहीं किया गया है। भाषा शिक्षण के लिए जिस तरह की साहित्यिक अभिव्यक्ति, कल्पनाशीलता या रचनात्मकता की अपेक्षा की जाती है उसका सर्वथा अभाव पाठों के इन शीर्षकों में नजर आता है- "मीठे बोल", "शिष्टाचार" "आदमी का धर्म" "कंजूस सेठ" आदि। हर पाठ के अंत में एक नीति वाक्य भी दिखाई देता है।

कक्षा एक से नैतिकता और स्वच्छता का जो पाठ पढ़ाने की शुरुआत हुई थी वो कक्षा 3 में भी जारी नजर आती है। पाठ 2 का नाम ही "मीठे बोल" है। इसमें खरगोश अपनी मीठी बोली से सफलता पाता है और लोमड़ी कड़वा बोल के परेशानी मोल लेती है। उपदेश है क्या कहना चाहिए क्या नहीं। दो कॉलम में बच्चों को सूची बनाने को कहा गया है कि वे क्या करें और क्या नहीं, यथा- सच बोलें, झूठ न बोलें। यानी बच्चों पर सच और झूठ का बोझ लादा गया है। शिष्टाचार पाठ में सभ्य आचरण, झूठ नहीं, चोरी नहीं, माता-पिता की आज्ञा नहीं टालना, बड़ों की बात नहीं काटना। शिष्ट भाषा का प्रयोग, ऊधम नहीं मचाना, फूल नहीं तोड़ना। बच्चों पर एक लंबी सूची लाद दी गई है।

पाठ चार में फिर से दांत मलो, मुंह-हाथ धोओ का सबक है। पाठ 6 का नाम "आदमी का धर्म है" पाठ 11 "अपना देश" में फिर से साहस और बलिदान आदि का उल्लेख है। पाठ 12 में पठन अभ्यास में अपनाओं अच्छी आदतें - दांत गंदे न रहें, नाखून काटना, रोज नहाना, तेज नहीं चिल्लाना की रट लगाई गई है। इन सब के बीच बच्चों का बचपन खोता हुआ नजर आता है।

चित्रों में कहीं हाथ जोड़े बच्चे खड़े हैं, कहीं मंजन करते तो कहीं नहाते हुए। इस पुस्तक में भी परंपरागत भूमिकाओं को ही दर्शाया गया है। मसलन स्कूटर चलाता पुरुष, झूला झूलती औरत, हल चलाता पुरुष, मूर्ति बनाते पुरुष कलाकार आदि।

पुस्तक में नैतिकता और  देश प्रेम के दबाव के चलते  गरीब, वंचित और  उनका परिवेश पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। मानवीय गुण और कर्तव्य बोध किताबों के पाठ पढ़ने से ही नहीं आ जाते उसके लिए कुछ अन्य अभ्यास भी जरूरी होते हैं। दूसरी बात यह कि पुस्तक का मकसद है हिंदी भाषा सिखाना और उसके प्रति रुचि पैदा करना जो नैतिक शिक्षा पढ़ाने से हासिल नहीं हो जाने वाला है।


- ममता जैतली