आप सभी जानते हैं कि राजस्थान की नई पाठ्यपुस्तकें
2015 में बरसात के खत्म होने तथा सर्दी के शुरू होने के बीच के वक्त यानी अगस्त
से लेकर अक्टूबर के बीच बनी। यह वक्त आम तौर पर बीमारियों के लिए मुफीद माना
जाता है। इसे निरा संयोग ही माना जाना चाहिए कि इस दौर में बनी नई पाठ्युपस्तकें
कई किस्म की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। किसी भी बीमारी का इलाज करने से पहले उसके लक्षणों को समझना
जरूरी होता है, नहीं तो गलत निदान की वजह
से मरीज की जान भी जा सकती है।
मैं
आज की इस बातचीत में इन पाठ्यपुस्तकों में पाई जाने वाली दो तरह की प्रमुख
बीमारियों में से कुछ को आपके सामने रखने की कोशिश करूंगा। पहली कुछ आम तरह की
बीमारियां जिनके लक्षण एक से ज्यादा विषयों की पाठ्यपुस्तकों में मिलते हैं।
दूसरी कुछ खास किस्म की बीमारियां जो किसी विषय विशेष की पाठ्यपुस्तकों में
मौजूद हैं। यह काम अकेले किसी एक व्यक्ति के बस का तो हैं नहीं और किसी एक ने
किया भी नहीं है। इसलिए मैं अलग-अलग विषयों में अलग-अलग वयक्तियों द्वारा इन
पाठ्यपुस्तकों पर किए गए कामों की मदद लूंगा। इनमें से हिंदी की पाठ्यपुस्तकों
पर हिमांशु व देवयानी ने, गणित पर
रविकांत ने, पर्यावरण अध्ययन पर अंबिका व दिलीप ने तथा
अंग्रेजी पर निवेदिता व लतिका ने काम किया है। विश्लेषण तो कुछ और लोगों ने भी
किया है लेकिन मैंने मदद इन्हीं के लेखों से ली है। यह निरा संयोग नहीं है कि
प्राथमिक कक्षा की पाठ्यपुस्तकों पर काम करने वालों में महिलाओं की संख्या
पुरूषों के बराबर या उनसे ज्यादा है। इसके लिए हम खास तौर पर पिछली सदी में ज्योति
राव फुले व सावित्री बाई फुले द्वारा शुरू किए गए कामों के शुक्रगुजार हैं।
आप यह
भी जानते ही हैं कि इन पाठ्यपुस्तकों को जितनी हड़बड़ी व जल्दबाजी में बनाया गया
है, उसने एक ऐसा विश्व कीर्तिमान यानी रिकार्ड
बना दिया है जिसे तोड़ने की जहमत ना तो पहले किसी ने की होगी ना ही आगे कोई करेगा,
राज्य सरकार की थोड़ी सी कोशिश से इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड
रिकार्ड में आसानी से जगह मिल सकती है। आप यह भी जानते ही होंगे कि इस किताब में
किस किस्म के कीर्तिमान दर्ज होते रहते हैं, जैसे सबसे लंबे
नाखूनों का या लंबी मूंछों का या बिना रूके बोलते रहने का आदि। अब ऐसे अजीबोगरीब
कारनामों की किताब में दर्ज होने के लिए कौन भला अपनी पाठ्यपुस्तकों को बरबाद
करके लाखों बच्चों के भविष्य को अंधकारमय बनाना चाहेगा। लेकिन राजस्थान की राज्य
सरकार और शैक्षिक संस्थान की राय इससे शायद अलग है, उन्हें
रिकार्ड बुक में दर्ज होने की ज्यादा चिंता है बनिस्पत राज्य के बच्चों के।
पहली
और एक बड़ी और आम बीमारी जो इन पाठ्यपुस्तकों को खोखला किए दे रही है वह है एक
खास नजरिए वाली रूढ़ भूमिकाओं यानी रूढ़ छवियों यानी स्टीरियोटाइप्स को बढ़ावा
देना है। ये रूढ़ छवियां कई तरह की हो सकती है। मैं यहां पर मर्दवादी किस्म की
रूढ़ छवियों का जिक्र करूंगा जो लैगिंक भेदभाव पर आधारित है। उदाहरण के लिए, कक्षा 4 की अंग्रेजी की पाठ्रयपुस्तक में
पृष्ठ 64 पर दिए गए अभ्यास पर एक निगाह डालिए। वह कहता है – आई वाज डूइंग माई
होमवर्क। माई मदर ……….(कुक) फूड। माई सिस्टर .......(प्ले).
माई फादर ........(वॉच) टीवी। माई ग्रांडमदर .......(सिंग) हाइम्स। अॅवर सर्वेंट
..........अरेंजिग थिंग्स इन द ड्रॉर्ज़। इसी तरह
पर्यावरण अध्ययन में देखें तो कक्षा 3 में पाठ 7 व 8 में पानी भरने तथा कक्षा 3
में पाठ 10 तथा कक्षा 4 में खाना बनाने का चित्र देखें तो उसमें लड़के इन कामों को
करते नजर नहीं आते, आएं भी क्यों
रूढ़ नजरिए से ये सब लड़कियों के काम जो ठहरे। गणित में इसकी बहुत गुंजाइश नहीं है
लेकिन हिंदी की किताबें तो इसे अंटी पड़ी है। कक्षा 1 के पृष्ठ 68 में ‘औ’ से ‘औरत’ को पढ़ाते हुए यह सिखाया जाता है कि ‘’औरत ममता की
मूरत है, भोली भाली सूरत है’’। (तस्वीर
में यह औरत गोरी बनाई गई है, गहरे भूरे या काले रंग वाली
औरतों को हीन मानने की रूढ़ परंपरा बिना कहे भी इसमें झलक जाती है)। कक्षा एक में
बनाई गई औरत की इस भोली भाली सूरत व ममता की मूरत को अगली कक्षाओं में त्याग,
बलिदान व सहिष्णुता की मूर्ति बना दिया जाता है। जिसका काम या तो
पति के लिए तप करना होता है जैसे पार्वती ने पति के रूप में शिव की प्राप्ति के
लिए घोर तप किया था, या फिर ससुराल की मर्यादा की रक्षा के
लिए सहर्ष वन्य जीवन अपनाना होता है जैसे सावित्री ने अपनाया था या पति की आज्ञा
का पालन करना होता है जैसा सीता ने राम के राजा बनने के बाद खुद को मिले वनवास पर
किया था, ''अयोध्या आकर राम राजा बने तो सीता को
वनवास दे दिया। और सीता को कोई शिकायत नहीं, कोई प्रतिवाद नहीं! जो मर्जी पति परमेश्वर की, वही हो''। आप देख सकते हैं कि इसमें अपने अधिकारों
के लिए लड़ती या जीवन से जूझती, अपना घर अपने मजबूत कंधों पर
चलाती और हमारे आस पास पाई जाने वाली औरतें नहीं है, ज्यादातर
जो हैं वो या तो मिथकीय औरतें हैं, जैसे सीता या सावित्री या
इतिहास में पाई जाने वाली औरतें हैं, जैसे कि रानी भवानी या
रानी लक्ष्मीबाई आदि। आमतौर पर जब शिक्षा के उद्देश्यों की बात की जाती है तो
शिक्षा को बदलाव का औजार बताया जाता है लेकिन ये किताबें यथास्थिति को बरकरार रखने
के औजार के तौर पर काम करती नजर आती है।
दूसरी
सबसे बड़ी बीमारी जो इन पाठ्यपुस्तकों को राहु और केतु की तरह ग्रसे हुए है वह है, इनमें ली गई सामग्री का ऊबाऊ व ठस होना।
जैसे, अंग्रेजी की कक्षा एक की किताब को देखें तो उसमें कुल
मिला कर 18 कविताएं हैं जिनमें से दो को
छोड़ कर सभी कविताएं नीरस, ऊबाऊ है और सतही स्तर पर उपदेश
देने व बच्चों को कुछ न कुछ तुरंत सिखा देने की जीर्ण रोग से ग्रस्त हैं। जैसे
विभिन्न चीजों के लिए भगवान को धन्यवाद करना, भगवान का आशीर्वाद
पाना, अंग्रेजी के अक्षर सीखना, समय पर
स्कूल आना व प्रार्थना में जाना, शरीर के अंग, गणित की संख्या व सप्ताह के दिन जानना। कविताओं की शब्द रचना व शब्दावली
एकदम बनावटी किस्म की है। लगता है इन किताबों के चुनने वालों के आसपास या तो बच्चे
हैं नहीं या उन्होंने कभी बच्चों के साथ काम नहीं किया जिस वजह से उन्हें यह भी
नहीं पता कि बच्चों की रूचि जानवरों, पौधों, पक्षियों, आवाजों, खेलों आदि
में जबरदस्त होती है और वे उनसे जुड़ी कविताओं को रस ले लेकर गाते भी हैं और
लंबी-लंबी कविताएं ऐसे याद करते हैं जैसे उनके बाएं हाथ का खेल हो।
यही
बीमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तकों को अलग तरह से ग्रसती है। जैसे कक्षा एक में कुछ
अच्छी कविताएं तो ली गई हैं लेकिन उन कविताओं को भाषा पढ़ना-लिखना सिखाने से उतना
ही दूर रखा गया है जितना कि एवरेस्ट की चोटी हमसे दूर है। जिन कविताओं की मदद से
पढ़ना-लिखना सिखाने का काम किया गया है उनमें से ज्यादातर न सिर्फ खराब कविताओं
के नमूने हैं बल्कि उन कविताओं में कुछ दूसरे किस्म के वायरस भी लगे हुए हैं
जिनका जिक्र आगे आएगा। पर्यावरण अध्ययन की किताबों में भी कविताओं का इस्तेमाल
उपदेश देने में किया गया है न कि आस-पास के पर्यावरण का अध्ययन करने में। गणित
में यह ऊबाऊपन कई जगह पर चित्रों के इस्तेमाल के बावजूद अपने आप न समझ में आने
लायक पाठों की वजह से पैदा होता है।
तीसरी
बड़ी बीमारी यह है कि इन पाठ्यपुस्तकों में कंप्यूटर से बनाए गए मशीनी व घटिया
तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है। ऐसा लगता है कि राजस्थान में चित्रकला और
चित्र शैलियों का अकाल पड़ा हुआ है यहां ना तो हाथ से बेहतरीन चित्र बनाने वाले
पाए जाते हैं और ना ही कंपयूटर की मदद से बेहतर चित्र बनाने वाले। पर्यावरण अध्ययन
की किताबों का अध्ययन करने वाले की राय में तो ''इन किताबों में दिए गए चित्रों पर पर्सपेक्टिव, कैमरा
एंगल, कलर पेंट, बैलेंस, अनुपात, आदि को लेकर बात करना या कहना तो बहुत दूर
की कौड़ी है। बच्चे इनसे बेहतर चित्र बना लेते हैं। इन किताबों के चित्र तो भद्दे,
भौंड़े और फूहड़ हैं।'' यही हाल बाकी किताबों
में बने चित्रों का भी है। इन किताबों में दिए गए चित्रों की मदद से कैसा
सौंदर्यबोध बच्चों में विकसित होगा इसकी कल्पना करके ही झुरझरी छूटती हैं। हमें
याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के मुताबिक बच्चों में सौंदर्यबोध
का विकास करना शिक्षा के व्यापक मकसदों में से एक है। ये किताबें उस मकसद का
पलीता लगाने के कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती।
चौथी
बड़ी बीमारी इन पाठ्यपुस्तकों की यह है कि इनके लेखकों को हिंदी सलीके से
पढ़ना-लिखना नहीं आता। उन्हें वाक्य
लिखने नहीं आते। सही वर्तनी की समझ उनमें नहीं है। वाक्यों के ढांचों व वर्तनी की
गलतियों के लिए कोई आयोग अगर बनाया जाए तो उसे इन किताबों में आई वर्तनी व वाक्यों
की गलतियों की सूची बनाने में दिनों तो क्या महीनों लग जाएंगे।
इन
किताबों में और भी कई किस्मों की आम बीमारियां हैं, जैसे ये समझने के बजाय रटंत पद्धति पर आधारित है, ये
कक्षा के ज्ञान को बाहर के ज्ञान के साथ जोड़ने से या तो बचती है या फिर ऐसा करने
का दिखावा करती है आदि, आदि।
अब
मैं आपके सामने हर विषय की कुछ खास व बड़ी बीमारियों को पेश करूंगा। हालांकि सभी
को आपके सामने पेश कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा।
सबसे
पहले हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्तकों की बात करते हैं। इसमें कई तरह की बीमारियों के
वायरस हैं उनमें से कुछ को आपके सामने रखूंगा। पहला है बिना समझे वर्णमाला रट कर
पढ़ना सिखाने का, दूसरा है,
सड़ी-गली जाति व्यवस्था को महिमामंडित करने का, तीसरा है, युद्धोन्माद को बढ़ावा देने का, चौथा है स्वच्छता अभियान से आक्रांत होने का।
पूरी
दुनिया में जहां पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए
समझ कर सिखाने के तरीकों पर जोर दिया जा रहा है, ये किताबें समझने का मुखौटा लगा कर उसके पीछे रट कर भाषा सिखाने की वर्ण
पद्धति को इस्तेमाल कर रही है। पहली कक्षा की किताब इस तरह से बनाई गई है कि वह
मशहूर शिक्षाविद कृष्ण कुमार की बात को सार्थक करती नजर आती है कि ''बच्चे निरर्थक ढंग से पढ़ने को ही पढ़ने का लक्ष्य समझ लें और अर्थ
ग्रहण करने की उनकी इच्छा कुंद हो जाए।''
यहां
दूसरा ये किताबें संविधान में दिखाए गए बराबरी के सपने को सामने रखने के बजाय हमारे
समाज की सड़ी-गली जाति व्यवस्था को कक्षा एक के बच्चों के सामने इस तरह रखती है कि
वही सबसे बेहतर चीज है। कक्षा एक की किताब से कुछ ऐसे उदाहरण आपके सामने रखता हूं, जिन्हें देखकर आप समझ सकते हैं कि वर्णमाला ज्ञान के नाम पर
इन किताबों में दरअसल कौनसा आदर्श समाज बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है।
1. य - यज्ञ ऋषि जी करते रहते, सदा भले की बातें करते (हिन्दी-1, पृ. 50)
2. ध - धनुष बाण से शोभा पाते, शूरवीर वो ही कहलाते (हिन्दी-1, पृ. 54)
3. ऋ - ऋषि हमेशा ज्ञान बताते, सच की राह पर कदम बढाते (हिन्दी-1, पृ. 80)
4. क्ष - क्षत्रिय युद्ध में जाते हैं, दुश्मन को मार भगाते हैं (हिन्दी-1, पृ. 80)
5. त्र - त्रिशूल होता बड़ा भयंकर, धारण करते हैं शिव शंकर (हिन्दी-1, पृ. 80)
6. ज्ञ - ज्ञानी देते सबको ज्ञान, इनका करते सब सम्मान (हिन्दी-1, पृ. 80)
7. ण - बाण कभी ना हाथ में रखना, संभाल कर तरकश में रखना (हिन्दी-1, पृ. 73)
किताबों
में दी गई तस्वीर में एक चोटीधारी व्यक्ति, छालपत्रों पर पुरानी कलम से कुछ लिख रहा है। कालखंड और
व्यक्ति की वर्णगत पहचान, दोनों को ही
समझना मुश्किल नहीं है। इस प्रकार ज्ञान के सार्वभौम आधुनिक अर्थ को उलटते हुए उसे
अध्यात्मिक-सामुदायिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया है तथा ऊपर उद्धृत सभी पंक्तियां
- एक भी पंक्ति भूतकाल में नहीं है। शूरवीर ‘वो ही’ कहलाते
हैं जो धनुष बाण धारण करते हैं, ऋषि ‘हमेशा’ ज्ञान
बताते हैं और क्षत्रिय आज भी युद्ध में जाकर ‘दुश्मन को’ मार
भगाते हैं (बल मेरा)। यह किताबें पोंगापंथी समाज की तस्वीर बच्चे के सामने रखती
हैं। पहली कक्षा में शुरू हुआ ‘क्षत्रिय
युद्ध में जाते हैं’ का दर्शन
सातवीं कक्षा में अपने अंजाम तक पहुंच जाता है जब कक्षा 7 की किताब यह बताती है कि
‘लव कुश में क्षत्रिय के सभी गुण विद्यमान थे। इस तरह से जो
जातिगत पूर्वाग्रह हमारे समाज की रग-रग में बसे हैं, ये किताबों उनसे टकराने के बजाए उनको खूब सारा खाद पानी
देती चलती है। इस आधार पर आप आगे चल कर किसी को भी जातिगत पहचान के आधार पर कंजूस, गंदा या कामचोर या कट्टर तक घोषित कर सकते हैं। इसी तरह
पहली कक्षा में दिए गए कई शब्द बच्चों के लिए न सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि हिंसा की
वाहक जातिवादी व सांमती संस्कृति को बढ़ावा भी देते हैं।
हिंदी
की किताबें तीसरी बड़ी व खतरनाक किस्म की बीमारी से भी ग्रस्त है जिसका नाम है - युद्धोन्माद
व सैन्यवाद। किताब बनाने वालों पर युद्ध का पागलपन इतना छाया हैकि वे कक्षा एक
में ली गई एक सरल सी उपदेशात्मक कविता को भी चित्र लगा कर युद्धोन्माद में
इस्तेमाल कर लेते हैं। कविता इस तरह से है - कौन करेगा देश की सेवा हम भाई हम, कौन चलेगा सच्चा रास्ता, हम भाई हम, कौन बोलेगा मीठी भाषा, हम भाई हम, कौन बनेगा अच्छा बच्चा, हम भाई हम। पहला चित्र शीर्षक के साथ है ‘जय जवान
जय किसान’ शीर्षक के अनुरूप इसमें दोनों दिख रहे हैं पर
तस्वीर में सैनिक की केन्द्रीय स्थिति लग रही है और बच्चे, शिक्षक और किसान तीनों उसका सैल्यूट ठोंकते नजर आते हैं।
पहले चित्र से
आपको कोई गलतफहमी बच गई हो तो दूसरा चित्र उसके एकदम दूर कर देता है। उसमें कुछ
बच्चे सैनिक की वेशभूषा में परेड करते दिख रहे हैं। सभी बच्चे लड़के हैं। यहां
प्रसंगांतर होगा पर बताना जरूरी है कि आठवीं कक्षा की किताब में, पृ. 95 पर स्वच्छता की प्रतिज्ञा लेते बच्चों की तस्वीर छपी
है और संयोग है कि उसमें सभी लडकियां हैं, कुछ के हाथ में झाडू भी है। बेशक सेना पर सारे देशवासियों
को गर्व होना चाहिए लेकिन पहली कक्षा के बच्चों को देश प्रेम/ देश सेवा का अर्थ
सैनिक बनने से जोड़कर दिखाना यह दिखाता है कि इसके संकलक निर्माता सैन्य राष्ट्रवाद
से ग्रस्त हैं। इसके साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि देश के बाकी सारे नागरिक भी
अलग-अलग तरह से देशप्रेमी या देश सेवक हो सकते हैं।
हिन्दी की किताबों की चौथी
बड़ी बीमारी इनका स्वच्छता से ग्रस्त नहीं बल्कि आक्रांत होना है। पहली किताब में
सबसे पहले पाठ से भी पूर्व दो पृष्ठों पर आठ कविताएं हैं। इनमें से तीन उदाहरण के
लिए प्रस्तुत है, 1. आँख में अंजन, दांत में मंजन, नितकर, नितकर, नितकर, कान
में तिनका, नाक
में उंगली, मतकर, मतकर, मतकर । 2. कोमल-कोमल सुन्दर होंठ, लगाने न दो इन पर चोट, अब आई मंजन की
बारी, दांतों को न लगे बीमारी। 3. बात सुनना ध्यान
लगाकर, भैया दोनों कान लगाकर, साफ सफाई इनकी कर लो, आदत अच्छी मन
में धर लो। कविताएं स्वच्छता की आदत बच्चों में विकसित करने के लिए जोड़ी गई हैं।
यह राज्य द्वारा चलाए जा रहे स्वच्छता अभियान से प्रेरित हैं। यदि स्वच्छता पर
केन्द्रित कुल रचनाओं को जोड़ा जाए तो कहा जा सकता है कि ये पाठ्यपुस्तकें स्वच्छता
अभियान से प्रेरित नहीं वरन आक्रान्त हैं। पहली से आठवीं तक की किताबों में बारह
पाठ पूर्णत: और पांच पाठ अंशत: स्वच्छता की शिक्षा के लिए जोड़े गए हैं। और वह तब
जब पर्यावरण अध्ययन की किताबें स्वच्छता के उपदेश से पहले ही अंटी पड़ी हैं। आप देख सकतें हैं कि यह उस
वर्ग की सनक भी है जो खुद तो जाति व्यवस्था की आड़ में सफाई का काम एक जाति को
सौंप कर खुद गंदगी फैलाने में मशगूल रहता है, लेकिन
बाकी दुनिया को सफाई का उपदेश देता रहता है।
पांचवी व एक और
बड़ी बीमारी इन किताबों की यह है कि ये किताबें समाज में औरतों की दूसरे दर्जे की
भूमिका को लगातार मजबूत करती व बढ़ावा देती चलती है। इसके कुछ उदाहरण पहले दिए जा
चुके हैं। यहां मैं सिर्फ एक उदाहरण दूंगा कि यह कितनी गहरी धंसी हुई है कि न
सिर्फ किताबों के पाठों में चित्रों में बल्कि व्याकरण तक में इसकी छाया दिखती
है। जैसे कक्षा दो की किताब के पाठ 11 – शेर व चूहा के साथ दिए गए अभ्यास में कहा
गया है कि, ''जैसे आऊंगा से आऊंगी
बना। इसी तरह आप भी नीचे दिए शब्दों से नए शब्द बनाएं, खाऊंगा,
चलूंगा, नाचूंगा, . . . .।'' इस तरीके से बच्चों के सामने छुपे तौर पर यह
रखा जा रहा है कि क्रियाएं तो पुरूषवाचक ही होती है और स्त्रीवाचक क्रियाएं उनकी
मदद से ही बनती है।
हिंदी
के साथ-साथ ही मैं अंग्रेजी भाषा की किताबों के बारे में संक्षेप में अपनी
बात रखूंगा। हिंदी की ही तरह ये किताबें वर्णमाला पद्धति पर आधारित हैं। इनका
मानना है कि बिना अक्षर ज्ञान के पाठक नहीं बना जा सकता। सो ये अक्षर के मौखिक व
लिखित अभ्यासों की बच्चों के सिर पर जम कर बमबारी करती हैं और यह लगभग तय कर
देती है कि इनको पढ़ने के बाद अंग्रेजी पढ़ कर समझना चाहे आए या न आए लेकिन
अंग्रेजी से नफरत जरूर हो जाए। यह बात पहले भी की जा चुकी है कि उपदेश देने की
बीमारी इनमें भी घर किए हुए है। पहली कक्षा की किताब में राजस्थान का संदर्भ
अंग्रेजी की किताबों में से इस तरह से गायब है जैसे गधे के सिर से सींग। अंग्रेजी
सीखना वैसे भी हमारे लिए एक परदेशी भाषा होने की वजह से मुश्किल होता है। इन
किताबों में इस मुश्किल को और बढ़ाने के लिए अंग्रेजी शब्दों के हिंदी समानार्थी
ऐसे शब्द दिए गए हैं जिन्हें समझना तो दूर बोलने में ही नानी व दादी सब याद आ
जाएं। 7 से 8 साल की उम्र में कक्षा 3 में पढ़ने वाले बच्चों की किताब में दिए
अंग्रेजी शब्दों के कुछ हिंदी अनुवाद पर जरा नजर डालिए – पराक्रम, शक्ति, प्रतिध्वनि,
धरोहर, अभ्यारण्य, उपलक्ष्य,
मध्य रात्रि, मंद पवन, षडयंत्र
आदि। इसी के साथ कक्षा एक में ऐसे शब्दों को लिया गया है कि लगता है लेखक बच्चों
को कक्षा एक में ही अंतर्राष्ट्रीय बना कर मानेंगे। वे बच्चों को इग्लू,
यॉच, क्विल, वायलिन
आदि पढ़वाना चाहते हैं। यह भी लगता है कि अंग्रेजी की किताब में हिंदी की भी ऐसी
परीक्षा हो रही हो जिसका मकसद ज्यादा से ज्यादा बच्चों को फेल करके स्कूलों से
बाहर धकेलने और खाली पड़े स्कूलों को बंद करने की बुनियाद तैयार करनी हो। कक्षा 3
की किताब में साहित्य तो बड़ी मुश्किल से मिलता है उसमें ज्यादा पाठ उपदेशात्मक
तथा सरकारी समस्याओं के बोझ से इस कदर लदे फंदे हैं मानो सभी समस्याओं का हल उन्हें
बच्चों की किताबों में ठूंसने से मिलने वाला हो। और सबसे बड़ी बात अंग्रेजी
सिखाते वक्त यह माना गया है कि राजस्थान के सभी बच्चे हिंदी जानते-समझते हैं।
आप अंग्रेजी की किताब में बहुभाषी राजस्थान की कोई भाषा तलाश कर देखिए आपको नाकों
चने चबाने पड़ जाएंगे। अब चने राजस्थान का इतना मशहूर भोजन है कि आपको नाक से
चनों को चबाने का अभ्यास तो होगा ही, यही मान कर लेखकों ने
बच्चों व आपको यह काम सौंपा है।
अब
हम थोड़ी बात गणित की किताबों की करेंगे। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 गणित शिक्षण
के सबसे अहम मकसद के तौर पर बच्चों के सोचने समझने के तरीके का गणितीयकरण करने को
बताती है। और यह काम करने के लिए कई किस्म की गणितीय प्रक्रियाओं को काम में लेना
सुझाती है, जैसे, औपचारिक समस्या समाधान, मात्रा का अंदाज, पैटर्न का इस्तेमाल तथा पैटर्न बनाना, दृश्यीकरण
तथा प्रस्तुतीकरण, अवधारणाओं के बीच संबंध जोड़ना, व्यवस्थित तरीके से तर्क करना, गणितीय संप्रेषण
आदि। वे यह भी सुझाती है कि इन प्रक्रियाओं को काम में लेते वक्त किसी सवाल या
प्रक्रिया को एक से ज्यादा तरीकों से सिखाया जाना चाहिए, गणनविधि
रटवाने के बजाय अवधारणात्मक समझ विकसित की जानी चाहिए।
इन
किताबों में गणित सिखाने की प्रमुख पद्धति को हम प्रदर्शन, दर्शन तथा कंठस्थीकरण पद्धति कह सकते हैं। कक्षा एक में संख्याएं सिखाते वक्त इनमें
पन्ने के पन्ने संख्याओं से भर दिए गए हैं। बच्चों से यह उम्मीद की गई है कि
उन पन्नों के दर्शन करें और उन्हें निगल लें। जब उनसे अध्यापक या कोई अधिकारी
कहें तब उसे उगल दें। इसमें किसी भी किस्म की गड़बड़ बरदाश्त नहीं की जाएगी। इसे
आप सीखने की मालगोदाम पद्धति भी कह सकते हैं। इसी तरह पहाड़े बनाते वक्त
भी ये किताबें पैटर्न निकालने व पहचानने में बच्चों की मदद नहीं करतीं बल्कि यह
मानती है कि बच्चे इसे दर्शन से पहचान लेंगे और अपने आप काम में लेने लगेंगे।
ये
किताबें शायद यह भी मानती है कि सीखी हुई चीज का दृश्यीकरण व प्रस्तुतीकरण फालतू
की चीज है और बच्चों को इसमें वक्त बरबाद नहीं करना चाहिए। इसलिए किताब में इस
बात के लिए या तो जगह ही नहीं छोड़ती और गलती से कहीं जगह छोड़ भी दी हो तो वह
इतनी कम होती है कि कोई बच्चा भूल के भी इन प्रक्रियाओं को इस्तेमाल करने की
हिमाकत न कर बैठे।
कई
जगहों पर जब गणित में सवालों को हल करने की अलग-अलग कार्यनीतियों पर काम किया जा
रहा हो तब गणित की ये किताबें रोजमर्रा के जीवन में काम ली जाने वाली गणितीय
कार्यनीतियों को नीची नजर से देखती है और ऐसे बच्चों को रट कर सवालों को हल करने
के तरीके बताती है। उदाहरण के लिए कक्षा 3 की किताब में 7 रूपए की 6 कापियां
खरीदने वाले सवाल में पहाड़ों की बजाय जोड़-जोड़ कर हिसाब लगाने वाली रितु को दिशु
झिड़क कर कहती है कि तुझे पहाड़े नहीं आते क्या ? ले मैं तुझे पहाड़े बनाना सिखाती हूं। लेखक भूल जाते हैं कि एक ही संख्या
को बार-बार जोड़ कर हिसाब लगाना गुणा करने का पहला कदम है।
गणित
की किताबों को लिखने वालों को कक्षा 3 के स्तर की गणित भी आती है या नहीं इस
बारे में आप किताबें देख कर संदेह में पड़ सकते हैं। कक्षा 3 में 97 को 12 से गुणा
करते वक्त उन्हें नतीजे में 1 दहाई व 4 इकाई मिलती है। बाकी 16 की संख्या उन्हें
ऐसी मिलती है जिसे वे इन दोनों के बीच में ठूंस देते है, जिसके बारे में उन्हें नहीं पता कि वह
इकाई है या दहाई। आपको पता हो तो आप पोस्ट कार्ड लिख उन्हें लिख कर बता दें।
एसएमएस कर दें या मेल कर दें। आप उन्हें सुझा करते हैं कि वे एक बार फिर से
प्राथमिक विद्यालय में दाखिला ले लें। आपको बुरा लग सकता है लेकिन मेरा मानना है
कि इन किताबों को लिखने वालों को सिर्फ इकाई का इकाई से गुणा करना आता है। लेकिन
वे यह नहीं जानते कि इकाई को इकाई से गुणा करने पर क्या मिलता है इसलिए किताब में
कहीं भी नहीं लिखते कि गुणनफल की इकाई कौनसी है। इस बात से तो बिल्कुल ही अनजान
हैं कि दहाई को दहाई से गुणा करने पर कौनसी इकाई मिलेगी, इकाई
की इकाई या दहाई की इकाई या सैकड़े की इकाई । अब आप उनसे यह मत पूछ बैठिएगा कि
दहाई को सैकड़े से गुणा करने पर गुणनफल की इकाई कौनसी होगी। स्थानीय मान यानी जगह
की कीमत की अवधारणा प्राथमिक स्तर की एक बुनियादी अवधारणा है जिसके बिना संख्या
की समझ ठीक से नहीं बन सकती है और ये किताबें गुणा सिखाते वक्त स्थानीय मान का
इस्तेमाल करने से इस कदर बचती है जैसे वो गणित की अवधारणा न हो कर डेंगू या
चिकनगुनिया का मच्छर हो जिसके छूते ही किताब लिखने वालों के बीमार हो जाने का
खतरा हो।
गणित
की इन किताबों में सवालों के जवाब किसी प्रक्रिया से नहीं बल्कि जादू के जोर से
प्रगट हो जाते हैं। उन्हें समझने के लिए बच्चों या आपके पास दिव्य दृष्टि
होनी जरूरी है। 544 के बाद कौनसी संख्या आएगी या 15 लड्डुओं को तीन थालियों में
बांटे तो हरेक थाली में कितने लड्डू आएंगे, आदि, सवाल पढते ही इनके जवाब झपाके की तरह आपके
दिमाग में रोशन होने चाहिए, ऐसा इन किताबों को लिखने वालों
का मानना है। सो ऐसा ही किताबों के पन्नों में नजर आता है। कई जगहों पर ये
किताबें यह संदेश देती है कि गणित के सवालों के जवाब किसी गणितीय प्रक्रिया से नहीं मिलते।
गणित
के बारे में आखरी बात यह है कि इन किताबों में जबरदस्ती वैदिक गणित को ठूंसा गया
है, जिसमें तेज गति से गणना करने के कुछ
टोने-टोटकों के अलावा कुछ नहीं है। जो वैसे भी आज के वक्त कंप्यूटर व मोबाइल के
आने के बाद निरर्थक सा है। वैदिक गणित एक अनजानी भाषा में तेज गति से गणना करने
के कुछ टोने-टोटके सिखाने से ज्यादा कुछ नहीं। ना तो वेदों का विषय गणित है और ना
ही इस गणित के वेदों में मिलने का कोई प्रमाण अब तक तो क्या जब किताब लिखी थी और
पहली बार छपी थी उस वक्त भी नहीं था।
गणित
की ये किताबें ना तो गणित की समझ को विकसित करने में कामयाब हैं और ना ही गणनाओं
में कुशल बना पाने में।
आखिरी
हिस्से में, मैं पर्यावरण अध्ययन की
किताबों के बारे में अपनी बात रखूंगा। यह बात तो पहले ही आ चुकी है कि ये किताबें
स्वचछता की बीमारी से पीड़ित तो है ही इसके साथ ही लैंगिक भेदभाव से भी बुरी तरह
ग्रसित है। इनमें औरतों का चित्रण कपड़े धोते हुए, नर्स,
मजदूरी करते हुए, बर्तन साफ करते हुए, खाना बनाते हुए, सिर पर पानी भर कर लाते हुए किया
गया है जबकि तकनीकी कामों में, खेलों में महिलाएं नदारद हैं।
दिखावे के लिए एक-दो जगहों पर कुछ महिलाओं का जिक्र भर कर दिया गया है। इस लिहाज
से ये किताबें मर्दवादी नजरिए को और मजबूत करने में मदद करती है।
पर्यावरण
अध्ययन की एक बड़ी दुविधा यह होती है कि बच्चों में क्षमताएं/दक्षताएं विकसित की
जाएं या उन पर सूचनाओं की बमबारी की जाए। आप शीर्षकों को देख कर यह वहम पाल सकते
हैं कि ये बच्चों को सक्रिय तौर पर भागीदार बनाने की कोशिश करती है, जैसे, सोचिए व चर्चा
कीजिए, सोचिए और लिखिए, इसे भी करिए,
तालिका देख कर बताइए। लेकिन इन नामों को रख देने भर से पर्यावरण अध्ययन
के ज्ञान में क्रमबद्धता व संगति नहीं आ जाती। ये किताबें सूचनाओं व आग्रहों से
भरी पड़ी हैं। ये सूचनाओं के बम ऐसे शब्दों में फेंकती है कि बच्चे तो बच्चे
बड़े भी घायल हो जाएं। जरा सुनिए – शून्यवाद, माध्यमिक
सिद्धांत, वैशेषिक सूत्र, हो गए ना आप
धराशाई। जाहिर है कि इन्हें बड़े भी नहीं समझ सकते तो बच्चे क्या समझेंगे।
बचचों के पास एक ही तरीका बचेगा कि वे इन्हें बिना समझे रट कर परीक्षा में उगल
दें। पर्यावरण अध्ययन की किताबों को गहराई से देखने वाले व्यक्ति सुझाते हैं कि
बेहतर होगा कि इन किताबों को शिक्षाशास्त्रीय व मनोवैज्ञानिक आधारों पर जांचा ही
न जाए कयोंकि ये उसके आधार पर तो बनी ही नहीं है। इनमें कदम कदम पर लेखकों के
मालगोदाम में रखी जानकारियां उफन-उफन कर पतीले से बाहर आती रहती है। एक दो उदाहरण
लेते हैं। जैसे- ये किताबें बताती है कि ज्यादा गर्मी से वाष्पीकरण होता है और
वाष्पीकरण के कारण ही कपड़े सूखते हैं। लेखक भूल जाते हैं कि दो तरह का वाष्पीकरण
होता है एक तो क्वथनांक पर और दूसरा क्वथनांक से कम ताप पर। और दूसरे में ताप के
अलावा दूसरे तत्व भी निर्धारक होते हैं। जैसे सर्दियों में 15 से 20 डिग्री के
तापमान पर भी कपड़े सूख जाते हैं जबकि बारिश में 25 से 30 डिग्री तापमान होने पर
भी कपड़ों को सूखने में सर्दी के दिनों से ज्यादा वक्त लगात है। इसकी वजह हवा
में मौजूद आर्द्रता की मात्रा तथा आर्द्रता ग्रहण करने की सामर्थ्य होती है।
ऐसे
ही किताबें कहती है कि पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है। लेखक भूल जाते हैं कि पानी
का बहना ऊंचाई से नहीं दाब से तय होता है। इसी तरह किताबें बताती है कि अमुक अमुक
वस्तु ‘हल्की’ होने की वजह
से तैरती है। लेखक यह भूल जाते हैं कि तैरने में मामला घनत्व का होता है तभी तो
इतना भारी जहाज मजे से तैरता रहता है और छोटी सी कील डूब जाती है।
ये
किताबें हमारे देश के बहुसांस्कृतिक व बहुभाषिक विरासत को किताबों से बाहर रखने
की कोशिश में अपनी जान लड़ा देती है। यह बात पाठ्यपुस्तक
बनाने वाली समिति के गठन से शुरू हो जाती है। कक्षा 3 से 5 तक की किताबें बनाने
वाले समूह के 26 सदस्यों में से एक भी मुस्लिम, सिख व इसाई नहीं है। कक्षा तीन के 20 पाठों में आए 46 पात्रों व व्यक्तियों
के नामों में से एक गुरमीत को छोड़ कर कोई भी नाम इन तीनों समुदायों में से नहीं
है। जब नामों को भी झाड़ पोंछ व निचोड़ कर बाहर कर दिया गया हो तो किताबों के विषय
वस्तु में इन समुदायों से संबंधित चीजों की कितनी नुमाइंदगी होगी यह अंदाज लगाना
मुश्किल नहीं है। यह बात और साफ हो जाती है जब आप कक्षा 3 से 5 तक की किताबों में
बहुसंख्यक समुदाय के भी एक खास वर्ग से जुड़े प्रतीकों की कभी वजह से तो ज्यादातर
बेवजह भरमार पाते हैं, जैसे कृष्ण, गाय,
राणा प्रताप, मंदिर में हाथ जोड़ना, कमल पर विराजी सरस्वती, महात्मा जी के आगे नतमस्तक,
पतंजलि का अष्टांग योग, ऋषि चरक, ऋषि सुश्रुत, ऋषि कणाद, स्वामी
विवेकानंद, सावरकर आदि। इसमें आपको आदिवासी, जनजातियां भी गायब सी ही नजर आएंगी। आप साफ देख सकते हैं कि ये किताबें बहुसंख्यक
वर्ग की नुमाइंदगी भी ठीक से कर पाने में नाकाम है, तो हाशिए
पर जीने वाले समूहों, अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी व उनका
समावेशीकरण तो बहुत दूर की बात है। जैसे-जैसे आप बड़ी कक्षाओं की किताबों को देखते
हैं यह बात और ज्यादा साफ होती जाती है। आपको इस बात से हैरत ही हो सकती है कि कि
इतने सारे ऋषि कक्षा 3 से 5 के बच्चों की कक्षाओं में अपने आस-पास के अध्ययन में
कहां से चले आ रहे हैं। एक खास तबके की इतनी सारी मिथकीय कथाओं को पर्यावरण अध्ययन
में शामिल करने की वजह अपने आस-पास के अध्ययन के बजाय मतारोपण के अलावा क्या हो
सकती है, जिसमें बच्चों को अपने आस-पास का वैज्ञानिक तरीके
से अध्ययन करने के बजाय मिथकीय या बहुत पुराने किस्से कहानियों को याद करने में
व्यस्त रखा जाए ताकि कहीं वे आस-पास का अध्ययन करने की क्षमताएं विकसित न कर
लें। आखिर अपने आपको व आस पास को बदलने की शुरूआत अपने आस पास को समझने से ही तो
होती है।
पर्यावरण
अध्ययन की किताबें वैज्ञानिक नजरिये का विकास करने की व आस पास को समझने की
शुरूआत कर पाने के लिहाज से नाकाम हैं। लगता है कि इनका मकसद यह है भी नहीं। इसी
तरह गणित की किताबें गणित शिक्षण के सबसे अहमतरीन मकसद गणितीय चिंतन के तौर-तरीकों
को विकसित करने में नाकाम है। भाषा की किताबें पढ़ने में रूचि पैदा करने तथा सीखने
के लिए अर्थ समझ कर पढ़ना सिखाने के लिहाज से नहीं बनाई गई हैं। उन्हें देख कर तो
यह लगता है कि वे युद्धोन्माद को बढ़ावा देने, औरतों की समाज में कमतरी को बनाए रखने व मजबूत करने आदि के लिए बनाई गई
है। उनका साहित्य में रूचि पैदा करने का मकसद तो दूर-दूर तक नहीं दिखता। इसलिए इस
बात की पूरी-पूरी संभावना है कि ये किताबें बच्चों को गणितीय व वैज्ञानिक समझ से
महरूम रखेंगी तथा पढ़ कर समझने व सीखने में रूचि पैदा करने की राह में रोड़े
अटकाएगी।
आप
सभी को यह लग रहा होगा कि क्या इन किताबों में कोई भी अच्छाई नहीं है। मेरी नजर
में इनमें अच्छाइयों की राइयों के दानों की तुलना में बुराइयों के पहाड़ के पहाड़
खड़े है। लेकिन आपको मेरी कही किसी भी बात पर आंख मूंद कर भरोसा करने की कोई जरूरत
नहीं है। आप खुद इन किताबों को गौर से पढ़िए। अपनी राय बनाइए। इन पर किए गए
अलग-अलग लोगों के कामों को पढ़िए। उनकी राय पर विचार करिए। फिर अपनी राय दीजिए।
भले ही आप इन में कही जा रही बातों से सहमत हों या असहमत हों। यह निहायत ही अफसोस
की ही बात है कि आज भी हमारे ज्यादातर स्कूलों में बच्चों व शिक्षकों के लिए
ज्ञान का एकमात्र स्रोत पाठ्यपुस्तक ही है। इसलिए भी इन पाठ्यपुस्तकों में रह गई
भयंकर चूकें कई गुना हो कर बच्चों में आज और कल नजर आएंगी।
अगर
आप आज इन पर नहीं सोचेंगे और नहीं बोलेंगे तो हमारे स्कूलों से जो पीढ़ियां
निकलेंगी उसके पास प्रमाण पत्र तो किसी न किसी तरह हो ही जायेंगे, लेकिन विषयों व उसके जरिए दुनिया की बनने
वाली समझ नहीं होगी और आप साल दर साल हर बड़ी कक्षा के अध्यापक से, उद्योगजगत से यही सुनेंगे पिछली कक्षाओं व विश्वविद्यालयों में इन बच्चों
को कुछ नहीं सिखाया गया और एक शिक्षक के नाते हमारे व आपके लिए इससे बुरी बात और
क्या हो सकती है कि कोई यह कहे कि आपने तो इन बच्चों को इतने साल स्कूल में रखा
और सिखाया कुछ नहीं।
शुक्रिया।
रवि कांत
(20.10.16 को टोडा राय सिंह में राजस्थान शिक्षक संघ(शेेखावत) के सम्मेलन में पेश किया गया आलेेख)
समझ में आने वाला एवं तार्किक लेख लिखा है रवि जी...Thanks
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