विषय: (पर्यावरण अध्ययन) ईवीएस
भारत में स्कूली
शिक्षा कार्यक्रमों के अंतर्गत पाठ्यक्रम,पाठ्यपुस्तकों
और शिक्षण पद्धतियोंको बनाने के लिएराष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCF) 2005 दस्तावेज़ एक खाका प्रदान करता है। एनसीएफ़ 2005 के अनुसार,शिक्षा के उद्देश्य हमारे संवैधानिक
मूल्यों के आधार पर तय किए गए हैं। यह दस्तावेज़ कहता है कि हम सारे बच्चों को जाति, धर्म संबंधी अंतर, लिंग और असमर्थता संबंधी
चुनौतियों से निरपेक्ष रखते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी
स्कूली माहौल मुहैया करायें जो सीखने में मदद करें और उन्हें सशक्त बनाए। एनसीएफ2005 के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में कहा गया है कि ज्ञान को विद्यालय
के बाहरीजीवन से जोड़ना, पढ़ाई रटन्त प्रणाली से मुक्त, पाठयचर्यापाठ्यपुस्तककेन्द्रित ना होकर बच्चों कोचहुँमुखी विकास के अवसर
मुहैया करवाए, परीक्षा को लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों सेजोड़ना तथा एक ऐसीअधिभावी(over-riding) पहचान का विकास जिसमेंप्रजातांत्रिक राज्य
व्यवस्था के अंतर्गतराष्ट्रीय चिंताएँ समाहित हों।
पाठ्यपुस्तकें कैसी हों?
एनसीएफ़ कहता है कि
पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें शिक्षक को इस बात के लिए सक्षम
बनाएँ कि वे बच्चों की प्रकृति और वातावरण के अनुरूप कक्षाई अनुभव आयोजित करें
ताकि सारे बच्चों को अनुभव मिल पाएँ। आगे यह दस्तावेज़ कहता है कि ज्ञान को सूचना
से अलग करने की आवश्यकता है और प्रत्येक साधन का उपयोग इस तरह किया जाना चाहिए कि
बच्चों को खुद को अभिव्यक्त करने में, वस्तुओं के इस्तेमाल
करने में, अपने परिवेश की खोजबीन करने में मदद मिल सके, साथ ही कक्षा के अनुभवों को इस प्रकार आयोजित किया जाए कि उन्हें ज्ञान
सृजित करने का अवसर मिले। NCF के अनुसार रचनात्मक सीखनापाठ्यक्रम
का एक हिस्सा होना चाहिए। पाठ्यपुस्तकेंविद्यार्थियों के लिए ऐसे अवसर और
परिस्थितियाँ सृजित करें जो विद्यार्थियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करें और उनमें
रचनात्मकता और सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करें। नींव का मजबूत और स्थिर होना
आवश्यक है, अतः प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय के बच्चों को खोजने और तर्कसंगत सोच
विकसित करने के मौके उपलब्ध कराने चाहिए जिससे कि वे अवधारणाओं, भाषा, ज्ञान, जाँच और सत्यापन प्रक्रिया
पर पर्याप्त ज्ञान आत्मसात कर सकें। अर्थात,पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से निम्नलिखित
बातें सुनिश्चित हों-
1. जाति, धर्म, लिंग, असमर्थता निरपेक्ष,समावेशी
स्कूली माहौल मुहैया करवाना।
2. बच्चों की प्रकृति और वातावरण के अनुरूप कक्षाई अनुभव
मुहैया करवाना।
3. ज्ञान को सूचना से अलग करना।
4. बच्चों को स्वयं ज्ञान सृजित करने का अवसर मुहैया करवाना।
प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम की बात करते हुए यह दस्तावेज़
कहता है कि
5. बच्चा अपने चारों ओर की दुनिया में नयी-नयी चीज़ें खोजने का
आनंद लेने और उनके साथ सामंजस्य बैठाने में व्यस्त रहे।
6. विद्यार्थी सूक्ष्म अवलोकन, वर्गीकरणआदि मूलज्ञानात्मककौशल हासिल कर सके।
7. भारत जैसे बहुलतावादी समाज में यह आवश्यक है कि सभी
क्षेत्रीय और सामाजिक समूह पाठ्य पुस्तकोंसे अपने आपको जोड़ पाएँ।
NCF पाठ्यचर्या के पाँच तरह के वैध मानकों की ओर इंगित करता है-संज्ञानात्मक
वैधता, प्रक्रिया की वैधता, ऐतिहासिक
वैधता, पर्यावरण संबंधी वैधता, नैतिक
वैधता, यहाँ इन्हींवैधताओं को आधार बना कर समीक्षा का प्रयास
किया गया है। यह तर्कसंगत भी है क्योंकि पाठ्यपुस्तकों के प्राक्कथन में स्पष्ट
रूप से लिखा है,“एन.सी.एफ. 2005 की इन्हीं भावनाओं को
आत्मसात करते हुए तथा इसके व्यापक फलक को समाहित करते हुए राजस्थान की प्राथमिक
कक्षाओं के लिए पर्यावरण-अध्ययन विषय का यह नया पाठ्यक्रम विकसित किया गया है।“
समीक्षा:
प्रस्तुत रिपोर्ट में एनसीएफ़ 2005 में वर्णित निर्देशक
सिद्धांतों और प्राथमिक स्तर पर विज्ञान (ईवीएस) शिक्षण के लिए तय मानदंडों के
आधार पर एक फ्रेमवर्क बना कर नयी पाठ्य पुस्तकों की पड़ताल करने का एक प्रयास किया
गया है।
1. संज्ञानात्मक वैधता- इसके अंतर्गत हम देखेंगे कि विषयवस्तु, प्रक्रिया,भाषा व
शिक्षा- शास्त्रीय अभ्यास आयुके अनुरूप हों और बच्चे की संज्ञानात्मकपहुँच के भीतर
आएँ।
(A) विषय वस्तु- इसके अंतर्गत विषय की प्रकृति से अनुरूपता,अवधारणाओं की तर्क संगत क्रमिकता और एकरूपता, तथ्यात्मक खरापन,वस्तुनिष्ठता, बच्चों के पूर्व ज्ञान और परिवेश से जुड़ाव को देखने का प्रयास किया गया।
पाठ्यपुस्तक में कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां पर्यावरण अध्ययन विषय की प्रकृति के
महत्वपूर्ण उद्देश्य- ज्ञानात्मक कौशलों के विकास के मौकों को पर्याप्त स्थान नहीं
दिया गया है, अधिकतर पाठों में जानकारी देने का प्रयास किया
गया है, जिसे बच्चे रट लें। ऐसी ही जानकारी के आधार पर हर
पाठ में “सोचिए और बताइये” शीर्षक से कुछ प्रश्न दिये गए हैं, जिनका उद्देश्य शायद यह है कि बच्चों को चिंतन और विश्लेषण के मौके मिलें
लेकिन एक उदाहरण के साथ, देखें-
इस उद्धरण में यह मान्यता प्रकट होती है कि विद्यार्थी को
महाराणा प्रताप के बारे में पूर्वज्ञान है,और उसी को आधार बना कर नयी जानकारी जोड़ने का प्रयास हो,जबकि ऐसा राजस्थान के क्षेत्र विशेष में ही संभव है। पाठ इतनी जल्दी में
लिखा गया है कि वाक्य भी गड़बड़ा गए हैं, दूसरे पैराग्राफ में
- "स्वामीभक्ति और मित्रता कि मिसाल कम ही देखने को नहीं मिलतीहै"।
उपरोक्त पाठ में तीनों सवाल सीधे सीधेमूलपाठ में से पूछ लिए
गए हैं, जिनमें विद्यार्थी के लिए कोई चिंतन या विश्लेषण
करने की गुंजाइश नहीं है।
सूचनाओं और जानकारियों से भरी पुस्तक में कहीं कहीं विषयवस्तु
को सरल बनाने के चक्कर में खामियाँ छोड़ दी गईं हैं । ऐसे कई उदाहरण आगे दिये गए
हैं। कक्षा 4 की पुस्तक में पाठ 13 में पृष्ठ
78 पर जीभ पर स्वाद के क्षेत्रों का भ्रामक चित्र दिया गया है, वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित किया जा चुका
है कि यह चित्र एक अध्ययन की गलत व्याख्या के कारण प्रचारित हो गया था और अब इसे
ठुकराया जा चुका है, किन्तु लगता है लेखक इस जानकारी से update
नहीं हैं और परिणामस्वरूप इन पाठ्यपुस्तकों में इसे पुनः दोहरा दिया
गया है। (स्वाद में क्या रखा है- स्निग्धा दास, शैक्षणिक
संदर्भ अंक- 10, मूल अंक 67, पेज 71-80)
(B) प्रक्रिया: सीखने की प्रक्रिया में कक्षा के अनुभवों को
इस प्रकार आयोजित किया जाना चाहिए कि उन्हें (बच्चों को) ज्ञान सृजित करने के
मौके मिलें लेकिन प्रस्तुत पाठ्यपुस्तकों में सुझाई गयी गतिविधियाँ बहुत कम हैं,
ज़्यादातर अवधारणाएँ सूचना के रूप में दे दी गयी हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा 5 का दसवाँ पाठ:
जल ऊपर से नीचे की ओर- पूरे पाठ में सिंचाई के साधनों की बात होती है, लेकिन बाल केन्द्रित/ गतिविधि आधारित
पाठ्यक्रम का दावा करने वाली किताब में इस पाठ में करने योग्य एक भी गतिविधि नहीं
सुझाई गयी है। इसी प्रकार से
हम कक्षा 3 की किताब का छठा पाठ देख सकते हैं:देखो, जंगल अजब निराला
हम कक्षा 3 की किताब का छठा पाठ देख सकते हैं:देखो, जंगल अजब निराला
(C)भाषा- पाठ
में कठिन शब्दावली का उपयोग बारंबार किया गया है। उदाहरण के लिए कक्षा 3 की पुस्तक
में बारहवाँ पाठ - हमारे गौरव- i - देखें:
इस पाठ में रसायन
शास्त्री, प्रतिभाशाली, वेदांगों, कालांतर, बौद्ध
दर्शन,बौद्धमत, दीक्षित,धातुकर्म, उल्लेखनीय, शून्यवाद,महायान संप्रदाय, माध्यमिक सिद्धान्त, राष्ट्रीय एकात्मकता आदि
कई शब्द आए हैं जो काफी क्लिष्टहैं, साथ ही तीसरी कक्षा के स्तर पर ये अवधारणाएँ काफी कठिन प्रतीत होती हैं।
चूंकि पाठ का उद्देश्य वैज्ञानिक के कार्यों से विद्यार्थियों को अवगत करना है, तो भाषा को सरल रखा जाना बहुत ज़रूरी लगता है।
इस जीवनी के
बाद प्रश्न है-
शून्यवाद और
माध्यमिक सिद्धान्त को समझे बिना इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मुश्किल है, एक संभावना यह लगती है कि विद्यार्थी को
इसे रटना होगा। और इस तरह यह पाठ NCF 2005 की मूल बात, शिक्षा को रटंत प्रणाली से दूर करने के विरुद्ध जाता प्रतीत होता है।
2. प्रक्रिया की वैधता- पाठ्यपुस्तकों में जब हम ये देखें कि विद्यार्थी को ऐसे
मौके मिलें जो उसे वैज्ञानिक जानकारी के पुष्टीकरण व सृजन करने की ओरबढ़ाएँ तो हम
पाते हैं कि कई ऐसे मौके आते हैं जहां ऐसी आस्थाओं को पाठों में स्थान दिया गया है
जिन्हें वैज्ञानिक रूप से ज्ञात करने और पुष्टीकरण करने की संभावना नहीं है। जैसे: कक्षा 4 की पुस्तक में पाँचवें पाठ “फूल ही
फूल” में कमल के फूल पर माँ सरस्वती का विराजमान होना!
इस तरह यह
पुस्तक तर्कसंगत सोच विकसित करने के मौके उपलब्ध कराने और अवधारणाओं, जांच और सत्यापन प्रक्रिया पर पर्याप्त
ज्ञान आत्मसात कर पाने में असफल दिखाई देती है और लिखे गए को हु-ब-हु मान लेने की
वकालत करती दिखती है।
3. ऐतिहासिक वैधता-पाठ्यपुस्तकों
में ऐतिहासिकदृष्टिकोण के साथ जानकारी देने के पीछे उद्देश्य यह है कि विद्यार्थी
ये समझ सकें कि समय के साथ-साथ विज्ञान की अवधारणाएँ कैसेविकसित हुईं। पर्यावरण
अध्ययन(ईवीएस) की किताबों में ऐतिहासिक सूचनाएँ भी इस तरह से आती हैं कि विज्ञान
की अवधारणाएँ कैसे विकसित होकर हमारे आज के ज्ञान तक पहुंची, इस बात को स्पष्ट नहीं कर पातीं और अपने
मूल उद्देश्य (विज्ञान को समाज से जोड़ने) को पूरा नहीं कर पातीं। जैसे- कक्षा 5 के
पहले पाठ: रिश्तों की समझ- में वंशानुगत लक्षणों की बात करते हुए पाठ में
बिना किसी भूमिका से एकदम आनुवांशिकी के जनक- मेंडल और भारतीय वैज्ञानिक
हरगोविंदखुराना के बारे में 4 लाइनें दी गयी हैं, जिनमें उनके काम को लेकर कोई ऐसी
जानकारी नहीं जिससे पाठ को जोड़ा जा सके। ज़बरदस्ती ठूँसी गयी इस जानकारी पर अभ्यास
प्रश्न भी दिया गया है, जिसे रटने के अलावा बच्चे के पास कोई
उपाय नहीं।
4. पर्यावरण संबंधी वैधता-पाठ्यपुस्तकों से अपेक्षा है कि ज्ञान को स्थानीयव वैश्विक
पर्यावरण केसंदर्भ में रखें ताकि विज्ञान,तकनीक व समाज के पारस्परिक संवादके क्रम में मुद्दों को समझा जा सके। जब
इस वैधता पर हम पुस्तकों को देखते हैं तो इनमें स्वच्छता,
शौचालय, कचरा प्रबंधन आदि पर विस्तार से बात की गयी है जिससे
यह उम्मीद दिखती है कि इन मुद्दों पर समाज में संवाद कायम होगा और बदलाव भी आ
सकेगा। लेकिन इनके महत्व को स्थापित करने हेतु उचित तर्क चुने जाने चाहिए थे। उदाहरण
के लिए कक्षा 5 का पाठ 4- मिलकर करें सफाई - “गंगा की भाभी का कहना
है कि जब हम घर एवं बाहर घूँघट निकालते हैं तो खुले में शौच कैसे जाएँ?” तो सवाल ये उठता है कि ऐसी महिला जो घूँघट नहीं निकालती या कोई पुरुष है
तो उसके लिए क्या ये इतना ही ज़रूरी नहीं है कि वह खुले में शौच न जाए? इस तरह शौचालय के उपयोग के लिए जो तर्क गढ़े गए हैं,वो
उचित प्रतीत नहीं होते।
5. नैतिक वैधता-पाठ्यपुस्तकें “हमारे गौरव” घटक के रूप
में अनेक प्रसिद्ध व्यक्तित्वों के बारे में बताते हुए नैतिक उपदेशों व मूल्यों को
प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हैं।
हमने संवैधानिक मूल्यों को पाठ्यपुस्तकों में देखने
का प्रयास किया जो स्पष्ट रूप से NCF 2005 में
भी परिभाषित किए गए हैं- जैसे जाति, धर्म, लिंग, असमर्थता निरपेक्ष,समावेशी
स्कूली माहौल मुहैया करवाना।
(A) धर्म और जाति के आधार पर समावेश:
कक्षा 5,पाठ 6- बीज
बना पौधा- बीज का अंकुरण पढ़ाने के लिए पेज 29 पर
बछबारस त्यौहार की बात की गयी है लेकिन राजस्थान के कई प्रदेशों में विशेषकर
आदिवासी बहुल इलाकों में इसके बारे में कोई नहीं जानता। अगले ही पेज 30 पर
नवरात्रि में मंदिर/ देवरों में ज्वारा उगाने की बात है। ‘बीजों का इधर उधर फैलना’
(पेज 32 पर) में ‘’मीरा ने पीपल का पौधा मंदिर की दीवार पर देखा...’’, इस तरह पूरा
पाठ अन्य धर्मों में पौधों के महत्व का कोई ज़िक्र नहीं करता, जबकि उनका भी समावेश यहाँ होना चाहिए- जैसे जैन और बौद्ध धर्म में अशोक, साल और वटवृक्ष, इस्लाम में पवित्र क़ुरान में कई
पौधों तुलसी, अंजीर, मेहंदी, अनार, जैतून आदि का महत्व बताया गया है, वहीं ईसाई धर्म में भी बबूल, जैतून, अंजीर, अंगूर और नारंगी के पौधों को किसी न किसी
दैवीय महत्व के साथ दर्शाया गया है। बड़, पीपल, शीशम, इमली, आम, नीम और बेर आदि को सिक्ख धर्म में विशेष
महत्व दिया गया है।
कक्षा 4 के पाठ फूल ही फूल में कमल के फूल के साथ माँ
सरस्वती का ज़िक्र है, लेकिन हम जानते हैं कि जैन, बुद्ध, सिक्ख, में भी कमल के
फूल का विशेष महत्व बताया गया है।
पाठ 7- वृक्षों की महिमा- वट
सावित्री के व्रत पर बड़ के पेड़ की पूजा से पाठ की शुरुआत होती है और फिर आँवला
नवमी पर आँवले और दशामाता पर पीपल की पूजा द्वारा पेड़ों के महत्व की बात होती है।
फिर अमृता देवी विशनोई की कहानी है। फिर प्रश्न भी है- आपके आस पास किन-किन पेड़-पौधों
की पूजा की जाती है?पूजा प्रार्थना की एक पद्धति है जो खास धर्म
में की जाती है; दूसरे धर्मां में पूजा नहीं की जाती। जब हम
यह सवाल पूछ रहे होते हैं तो उस खास पद्धति के बारे में बात कर रहे होते हैं और
बाकी को छोड़ दे रहे होते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक बहुलता के खिलाफ जाता प्रतीत
होता है।
इस तरह लेखक एक संकुचित विचारधारा के साथ पुस्तक में तथ्यों
को प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते हैं।
(B) लैंगिक समावेश:
कक्षा 3 का पाठ:3 - खेल-खेल में, कक्षा 4 का पाठ-4: खेल प्रतियोगिता, कक्षा 5 का पाठ 5: आओ खेलें खेल सभी पाठों में जितने चित्र दिये
गए हैं उनमें लड़कियों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है वे कक्षा 5 में पहली बार ठीक से
दिखाई देती हैं। यहाँ सभी चित्र संग्रह कर एक कोल्लाज के रूप में प्रस्तुत हैं :
कुछ इस ही तरह
का चित्रण “अलग अलग हैं सबके काम” (कक्षा 3),खेती से जुड़े पाठों में (कक्षा 5, पेज 104), कपड़े की कहानी(कक्षा 4) में बयान होता है, सभी
चित्रों में पुरुष ही दिखाये गए हैं लेकिन इसके विपरीत
यदि कक्षा 3 में पाठ 7 और 8 में पानी भरने और कक्षा 3 में पाठ 10 और कक्षा
4 में पेज 64पर खाना बनाने की गतिविधि के चित्र देखें तो उनमें लड़के दिखाई नहीं
देते। इस तरह यह पाठ “लड़कों के काम और लड़कियों के काम” की परंपरागत पितृसत्तात्मक अवधारणा
का प्रसार करते प्रतीत होते हैं।
(C)असमर्थता
निरपेक्ष:
कक्षा 5 के पाठ 3 - कुछ खास हैं हम- दिव्याङ्ग बच्चों पर आधारित इस पाठ में सभी
बच्चों को ब्रेल लिपि और सांकेतिक भाषा सिखाने का प्रयास किया गया है और उस पर
आधारित गतिविधि भी दी गयी है। कक्षागत स्तर पर भी यदि इस तरह की सांकेतिक भाषा के
उपयोग के उचित अभ्यास के मौके दियेजाएँ तो यह एक सराहनीय प्रयास हो सकता है जहां
सभी बच्चे दिव्याङ्ग बच्चों से संवाद स्थापित कर सकेंगे।
कुछ नोट्स:
पाठ के नाम का उसकी विषय वस्तु से तार्किक सम्बन्ध:
उदाहरण के तौर पर कक्षा 3, पाठ हरी- हरी पत्तियाँ– पेज 30 पर दिये गए इस पाठ में शुरुआत पेड़ और पौधे में
विभेद से होती है और बात बरगद की शाखाओं और वायवीय जड़ों पर भी होती है, तो फिर पाठ के नाम में सिर्फ पत्तियाँ
क्यों?
विषय वस्तु की तार्किकता:
कक्षा 5,पाठ 2 - परिवारों का आना-जाना: यह पाठ परिवारों के पलायन
पर आधारित है। चार में से तीन उदाहरण किसी न किसी तरह से संसाधनों के अभाव जैसे- कृषि हेतु बारिश, बच्चों के उच्च अध्ययन के
लिए संस्था न होना, बाँध के भराव क्षेत्र में
आने के हैं, और एक उदाहरण व्यापार के
लिए बेहतर मौके का है। यह सर्वविदित है कि राजस्थान के कई जिलों में पलायन का
मुख्य कारण आवश्यक संसाधनों/ रोजगार के साधनों का अभाव ही है लेकिन इसी
पुस्तक के पेज 12 : पर दो लाइन हैं :
मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ गयी है अपार,
पूर्ति हेतु मनुष्य पलायन करता बार- बार।
यह ठीक है कि पलायन को रोका जाना चाहिए, लेकिन ऐसे तर्क देकर?
पाठ 5- आओ खेलें खेल- खेल और योग पर आधारित इस पाठ में शीर्षक- आती जाती साँस
में गरम/ठंडी साँस, श्वसन दर और
फूँक के इस्तेमाल आदि जो बात आई है उसमें यह स्पष्टता नहीं है कि यह पढ़ाने का
उदेश्य क्या है और इसके आधार पर कौन सी अवधारणा पर बात की जानी है? पाठ के अंत में सवाल भी है- फूँक से कौन कौन से कार्य किए जा सकते हैं?
पाठ 7- वृक्षों की महिमा- ओरण, गोचर और
चारागाह में वन सम्पदा संरक्षण के नाम पर पेड़ नहीं काटने पर विस्तार से चर्चा की
गयी है, लेकिन जंगल की इस अवधारणा में पशु-पक्षी का कोई
ज़िक्र तक नहीं है, कारण शायद यह है कि कक्षा 4 के आठवें पाठ
“जंगल की बातें” में जानवरों की ही बात हुई है। पाठ के अंत में (पेज 38 पर) 4
अभयारण्य और संबन्धित जिलों के नाम हैं लेकिन उनके बारे में और कोई जानकारी नहीं
है। अंत में बिना किसी भूमिका या तारतम्य के खाद्य शृंखला पर चंद लाइन और एक सूची
बनाने को देकर कुछ प्रश्न रख दिये गए हैं। समेकन में एक बिन्दु है- जंगल में एक
जीव दूसरे जीव को खाता है इस प्रकार खाद्य शृंखला बनती है। बालक सोच सकता है
कि ऐसा सिर्फ जंगल में ही होता होगा, उसके आस-पास नहीं।
पाठ-8- जीव जंतुओं की निराली दुनिया- पाठ के पहले भाग में ही ज्ञानेन्द्रियों पर बात होती है, साथ ही यह भी स्थापित करने का प्रयास है कि
अलग अलग जंतुओं में यह क्षमता अलग-अलग होती है, लेकिन बच्चों
के लिए स्वयं कुछ खोजने और परिवेश से जानकारी जुटाने का अवसर एक ही सवाल तक सीमित
है- ‘’चमगादड़ की तरह और कौनसे जानवर रात में देख सकते हैं?’’
उड़ने वाले जंतुओं (पेज-41 पर) के चित्र में सिर्फ कीटों- मक्खी, मच्छर और तितली का चित्र है, तो क्या पक्षी उड़ने
वाले जन्तु नहीं होते हैं? इसी तरह का भ्रम(misconception)कौन कितनी दूर देख सकता है शीर्षक में- चौथी लाइन “इनकी आँखें
मानव व जंतुओं की आँखों से भिन्न होती हैं” में भी reflect होता
है।
जैव विविधता पर आधारित इस पाठ में चमगादड़, कुत्ता, छिपकली, साँप, मेंढक, चींटी का ज़िक्र
भी है, लेकिन रेगिस्तान का जहाज़ “ऊँट” नदारद है और उसकी
विशेष क्षमता तो दूर की बात है।
पाठ- 9– कहाँ-कहाँ से पानी- पेज 46 पर सोचिये और बताइये में प्रश्न है- ‘’पीने के लिए
कैसा पानी काम में लेना चाहिए?‘’ अगली
ही पंक्ति में जल के स्रोतों की बात होने लगती है। आगे चल कर पेज 48 पर जल के
शुद्धिकरण को एक चित्र और 2 वाक्यों में सीमित कर दिया गया है,पेज 49 पर तालाब का दृश्य के नाम से 2 चित्र हैं और एक सवाल- ‘’क्या उसका
पानी पीने योग्य है?’’ इस तरह पानी की गुणवत्ता को लेकर कोई चर्चा नहीं होती, न ही इस प्रश्न का कहीं कोई समेकन होता है।
पाठ- 11- जल में जीवन- पाठ की प्रस्तावना की इन पंक्तियों“ज़मीन पर पाये जाने वाले
पौधे और जंतुओं में से कुछ पहाड़ों, कुछ मैदानों तथा कुछ मरुस्थल में पाये जाते हैं। इन स्थानों पर सर्दी, गर्मी व बरसात की भिन्नता के कारण वातावरण भी भिन्न भिन्न होता है” का पाठ
के शीर्षक और विषय वस्तु में कोई तारतम्य नहीं दिखता। और इसके बाद अचानक सवाल
आता है- ‘’आपने पानी में कौन-कौन से जीवों को रहते देखा है?’’
पाठ-12- गंदा पानी, फैलाये रोग –पाठ का बड़ा
हिस्सा मलेरिया और मच्छरों पर ही आधारित है जबकि कृमि/जीवाणुजनित रोगों को एक सूची बना कर निबटा
दिया गया है।
पाठ- 13-पानी से खेलें- इस पाठ में पहले घुलनशीलता और फिर तैरने और डूबने की
अवधारणा पर बात की गयी है। आगे द्रव के मापन की यूनिट और बर्तनों की धारिता (capacity)पर बात की गयी है। पाठ के अंत में
आलपिन को पानी पर अख़बार के साथ तैराने की गतिविधि दी गयी है लेकिन पर इसके कारण
(पृष्ठ तनाव) का ज़िक्र भी नहीं है, ऐसे में यह तथ्य एक जादू
का अहसास तो करवाता है लेकिन किसी तरह की वैज्ञानिक समझ विकसित करता प्रतीत नहीं
होता।
पाठ- 14 खाने से पचने तक-
पाठ के शुरू में भोजन को ठीक
से चबाने पर ज़्यादा ज़ोर है जबकि शीर्षक पर आधारित अवधारणा (मुंह से मल त्याग तक)
को संक्षेप में 4 लाइन में पेज 70 पर दे दिया
गया है। भोजन के घटकों पर कोई चर्चा किए बिना ग्लूकोस को तुरंत ऊर्जा के लिए ज़रूरी
बता दिया गया है, इसी क्रम में आगे स्कूल में दी जाने वाली
आइरन की गोली खाने की आवश्यकता बताई गयी है और पाठ के अंत में कृमि नियंत्रण
के लिए दी जाने वाली गोली खाने का संदेश है।
खास बात यह है कि इस पाठ में
पेज 73 पर एक खाद्य पिरामिड दिया गया है जो किस आधार पर बनाया गया है, यह विवाद का विषय है।
भोजन में क्या, कितना खाएं बताते हुए प्रोटीन के स्रोत- दूध,दही, छाछ (जो आसानी से उपलब्ध होता
है और स्वयं मुख्यमंत्री सरस के विज्ञापन में रोजाना 2 ग्लास दूध पीने को कहती
हैं), मछली
और मांस का सीमित इस्तेमाल सुझाया गया है। सर्वाधिक इस्तेमाल में अनाज और दालों को
दिया गया है। उच्च क्वालिटी प्रोटीन के सस्ते, सुलभ और अच्छे स्रोत अंडे
का इस पिरामिड में कोई ज़िक्र तक नहीं है। सर्वाधिक, खूब, सीमित और कम मात्र बोलने
के आधार क्या हैं और अनुपात क्या हैं, जब तक ये स्पष्ट न हों, इस पिरामिड को लेकर बच्चे के मन में भ्रम (misconception बनने)पैदा होने की पूरी
संभावना है।
एक ग्यारह साल के बच्चे को
भोजन में सभी अवयवों (कार्बोहायड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज, जल और रेशेदार
चीज़ें) की एक संतुलित मात्रा की ज़रूरत होती है, और बिना मात्रा बताए उसे
इस तरह के पिरामिड के माध्यम से सीमित या कम खाएं जैसी बात कहना आपत्तिजनक है।
इंटरनेट पर ऐसे कई चित्र हैं
खास कर अमरीकी एजेन्सी यूएसडीए द्वारा प्रस्तावित पिरामिड लेकिन उनमें भी हर
किस्म के भोजन की सर्विंग्स की संख्या दर्शाई गयी होती हैं, और वो
भी वयस्कों की आवश्यकता के आधार पर, बच्चों के लिए कहीं ऐसा चार्ट नहीं दिखता।
इस तरह यह पाठ बहुत
उपदेशात्मक है, खोजने/ तर्क करने/ ढूँढने/ ज्ञान निर्माण के मौके देने के बजाय बच्चों को
सूचनाओं को रटने/ जैसा है वैसा ही मान लेने पर अधिक ज़ोर देता है और अफसोस ये कि
सूचनाएँ भी तोड़-मरोड़ कर पेश की गयी हैं।
पाठ 15- जब चाहें, तब खाएं
पाठ का आगाज जिस किस्से से
होता है, उसके आधार पर पाठ का नाम होना चाहिए था- जब खाएं,
तब पकाएँ। और पकाएगा कौन? पाठ से सीखें तो सुबह जल्दी उठकर
खाना पकाएगी- माँ, और यदि खराब हो गया तो कारण समझा सकेंगे - पिताजी- यह एकदम
पारंपरिक रूढ़ छवियों (typicallystereotyped)को पोषित करता है और कौनसा काम
किसका है? और क्यों है?इन धारणाओं के
प्रति प्रश्न उठाने का मौका नहीं है, बल्कि एक चली आ रही
परिपाटी की लकीर पीटी जा रही है।
आगे पाठ यह सिखाने का भी
प्रयास करता है कि “बाज़ार में बिकने वाली सामग्री में पौष्टिकता नहीं होती”। यहाँ
भी एक तरह का सामान्यीकरण कर दिया गया है, जिसमें बच्चे स्वयं देख कर विश्लेषण कर सकें, और निर्णय ले सकें इस बात के अवसर नहीं मिलते।
भोजन की बर्बादी और इसके
दुष्प्रभाव की बात करने की कोशिश इस पाठ में की गयी है। सामूहिक भोज में होने वाली
बर्बादी और इसकी वजह से होने वाली गंदगी और आवारा पशुओं के जमावड़े को भी दिखाया
गया है, लेकिन पाठ में इस तरह के कचरे के निस्तारण को लेकर कोई बात नहीं होती। ये
बात ठीक है कि कचरा प्रबंधन का पहला उसूल है कि बर्बादी कम से कम हो, लेकिन जब हो जाए तो हम सिर्फ इसके वातावरण पर प्रभाव तक सीमित न रह कर
ऐसे खराब भोजन से कैसे compost/ biogas बनाई जा सकती है, इसका भी ज़िक्र होता तो बेहतर रहता।
शिक्षा शास्त्रीय
पक्ष:भोजन
संरक्षण के बारे में पढ़ाते हुए, सूखे अनाज और पके हुए अनाज का उदाहरण देकर बच्चों
को विश्लेषण के मौके दिये जा सकते थे उनकी यह समझ बनाने के लिए कि किसी भोजन के
खराब होने के पीछे उसमें उपस्थित नमी की क्या भूमिका है। बच्चों से एक रोटी/ ब्रैड
के टुकड़े को कुछ दिन खुला रख कर इसका अवलोकन करने को कहा जा सकता था,और उसमें पलने वाले सूक्ष्म जीवों पर चर्चा की जा सकती थी। लेकिन यहाँ बच्चों
के पास कुछ करके देखने और समझने के मौके नहीं है और पिताजी ही अपनी सीख में तय कर
देते हैं कि क्या खराब होगा क्या नहीं, और क्यों।संरक्षण के
लिए क्या उपाय काम में लिए जाते हैं इस बारे में पेज 80 पर बता दिया गया है और उसी
जानकारी को पेज 81 में तालिका में भरने को कह दिया गया है। बच्चे पूरे पाठ में निष्क्रिय
रहते हैं, अंत में उन्हें एक चूरन बनाने की रैसिपि दे दी
गयी है, जिसे बना कर वे खुश हो सकते है,बशर्ते उनके परिवेश में आंवला मिल जाए!
इस लेख को मैंने लिखा था, लेकिन यहाँ कहीं लेखक का ज़िक्र नहीं दिया गया है.
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