Sunday, 23 October 2016

कई बीमारियों से परेशान राजस्‍थान की नई पाठ्यपुस्‍तकें

आप सभी जानते हैं कि राजस्‍थान की नई पाठ्यपुस्‍तकें 2015 में बरसात के खत्‍म होने तथा सर्दी के शुरू होने के बीच के वक्‍त यानी अगस्‍त से लेकर अक्‍टूबर के बीच बनी। यह वक्‍त आम तौर पर बीमारियों के लिए मुफीद माना जाता है। इसे निरा संयोग ही माना जाना चाहिए कि इस दौर में बनी नई पाठ्युपस्‍तकें कई किस्‍म की गंभीर बीमारियों से ग्रस्‍त हैं। किसी भी बीमारी का इलाज करने से पहले उसके लक्षणों को समझना जरूरी होता है, नहीं तो गलत निदान की वजह से मरीज की जान भी जा सकती है।

मैं आज की इस बातचीत में इन पाठ्यपुस्‍तकों में पाई जाने वाली दो तरह की प्रमुख बीमारियों में से कुछ को आपके सामने रखने की कोशिश करूंगा। पहली कुछ आम तरह की बीमारियां जिनके लक्षण एक से ज्‍यादा विषयों की पाठ्यपुस्‍तकों में मिलते हैं। दूसरी कुछ खास किस्‍म की बीमारियां जो किसी विषय विशेष की पाठ्यपुस्‍तकों में मौजूद हैं। यह काम अकेले किसी एक व्‍यक्‍ति के बस का तो हैं नहीं और किसी एक ने किया भी नहीं है। इसलिए मैं अलग-अलग विषयों में अलग-अलग वयक्‍तियों द्वारा इन पाठ्यपुस्‍तकों पर किए गए कामों की मदद लूंगा। इनमें से हिंदी की पाठ्यपुस्‍तकों पर हिमांशु व देवयानी ने, गणित पर रविकांत ने, पर्यावरण अध्‍ययन पर अंबिका व दिलीप ने तथा अंग्रेजी पर निवेदिता व लतिका ने काम किया है। विश्‍लेषण तो कुछ और लोगों ने भी किया है लेकिन मैंने मदद इन्‍हीं के लेखों से ली है। यह निरा संयोग नहीं है कि प्राथमिक कक्षा की पाठ्यपुस्‍तकों पर काम करने वालों में महिलाओं की संख्‍या पुरूषों के बराबर या उनसे ज्‍यादा है। इसके लिए हम खास तौर पर पिछली सदी में ज्‍योति राव फुले व सावित्री बाई फुले द्वारा शुरू किए गए कामों के शुक्रगुजार हैं।

आप यह भी जानते ही हैं कि इन पाठ्यपुस्‍तकों को जितनी हड़बड़ी व जल्‍दबाजी में बनाया गया है, उसने एक ऐसा विश्‍व कीर्तिमान यानी रिकार्ड बना दिया है जिसे तोड़ने की जहमत ना तो पहले किसी ने की होगी ना ही आगे कोई करेगा, राज्‍य सरकार की थोड़ी सी कोशिश से इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में आसानी से जगह मिल सकती है। आप यह भी जानते ही होंगे कि इस किताब में किस किस्‍म के कीर्तिमान दर्ज होते रहते हैं, जैसे सबसे लंबे नाखूनों का या लंबी मूंछों का या बिना रूके बोलते रहने का आदि। अब ऐसे अजीबोगरीब कारनामों की किताब में दर्ज होने के लिए कौन भला अपनी पाठ्यपुस्‍तकों को बरबाद करके लाखों बच्‍चों के भविष्‍य को अंधकारमय बनाना चाहेगा। लेकिन राजस्‍थान की राज्‍य सरकार और शैक्षिक संस्‍थान की राय इससे शायद अलग है, उन्‍हें रिकार्ड बुक में दर्ज होने की ज्‍यादा चिंता है बनिस्‍पत राज्‍य के बच्‍चों के।

पहली और एक बड़ी और आम बीमारी जो इन पाठ्यपुस्‍तकों को खोखला किए दे रही है वह है एक खास नजरिए वाली रूढ़ भूमिकाओं यानी रूढ़ छवियों यानी स्‍टीरियोटाइप्‍स को बढ़ावा देना है। ये रूढ़ छवियां कई तरह की हो सकती है। मैं यहां पर मर्दवादी किस्‍म की रूढ़ छवियों का जिक्र करूंगा जो लैगिंक भेदभाव पर आधारित है। उदाहरण के लिए, कक्षा 4 की अंग्रेजी की पाठ्रयपुस्‍तक में पृष्‍ठ 64 पर दिए गए अभ्‍यास पर एक निगाह डालिए। वह कहता है – आई वाज डूइंग माई होमवर्क। माई मदर ……….(कुक) फूड। माई सिस्‍टर .......(प्‍ले). माई फादर ........(वॉच) टीवी। माई ग्रांडमदर .......(सिंग) हाइम्‍स। अॅवर सर्वेंट ..........अरेंजिग थिंग्‍स इन द ड्रॉर्ज़। इसी तरह पर्यावरण अध्‍ययन में देखें तो कक्षा 3 में पाठ 7 व 8 में पानी भरने तथा कक्षा 3 में पाठ 10 तथा कक्षा 4 में खाना बनाने का चित्र देखें तो उसमें लड़के इन कामों को करते नजर नहीं आते, आएं भी क्‍यों रूढ़ नजरिए से ये सब लड़कियों के काम जो ठहरे। गणित में इसकी बहुत गुंजाइश नहीं है लेकिन हिंदी की किताबें तो इसे अंटी पड़ी है। कक्षा 1 के पृष्‍ठ 68 में से औरत को पढ़ाते हुए यह सिखाया जाता है कि ‘’औरत ममता की मूरत है, भोली भाली सूरत है’’। (तस्‍वीर में यह औरत गोरी बनाई गई है, गहरे भूरे या काले रंग वाली औरतों को हीन मानने की रूढ़ परंपरा बिना कहे भी इसमें झलक जाती है)। कक्षा एक में बनाई गई औरत की इस भोली भाली सूरत व ममता की मूरत को अगली कक्षाओं में त्‍याग, बलिदान व सहिष्‍णुता की मूर्ति बना दिया जाता है। जिसका काम या तो पति के लिए तप करना होता है जैसे पार्वती ने पति के रूप में शिव की प्राप्‍ति के लिए घोर तप किया था, या फिर ससुराल की मर्यादा की रक्षा के लिए सहर्ष वन्‍य जीवन अपनाना होता है जैसे सावित्री ने अपनाया था या पति की आज्ञा का पालन करना होता है जैसा सीता ने राम के राजा बनने के बाद खुद को मिले वनवास पर किया था, ''अयोध्‍या आकर राम राजा बने तो सीता को वनवास दे दिया। और सीता को कोई शिकायत नहीं, कोई प्रतिवाद नहीं! जो मर्जी पति परमेश्‍वर की, वही हो''। आप देख सकते हैं कि इसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ती या जीवन से जूझती, अपना घर अपने मजबूत कंधों पर चलाती और हमारे आस पास पाई जाने वाली औरतें नहीं है, ज्यादातर जो हैं वो या तो मिथकीय औरतें हैं, जैसे सीता या सावित्री या इतिहास में पाई जाने वाली औरतें हैं, जैसे कि रानी भवानी या रानी लक्ष्‍मीबाई आदि। आमतौर पर जब शिक्षा के उद्देश्‍यों की बात की जाती है तो शिक्षा को बदलाव का औजार बताया जाता है लेकिन ये किताबें यथास्थिति को बरकरार रखने के औजार के तौर पर काम करती नजर आती है।

दूसरी सबसे बड़ी बीमारी जो इन पाठ्यपुस्‍तकों को राहु और केतु की तरह ग्रसे हुए है वह है, इनमें ली गई सामग्री का ऊबाऊ व ठस होना। जैसे, अंग्रेजी की कक्षा एक की किताब को देखें तो उसमें कुल मिला कर 18 कविताएं हैं  जिनमें से दो को छोड़ कर सभी कविताएं नीरस, ऊबाऊ है और सतही स्‍तर पर उपदेश देने व बच्‍चों को कुछ न कुछ तुरंत सिखा देने की जीर्ण रोग से ग्रस्‍त हैं। जैसे विभिन्‍न चीजों के लिए भगवान को धन्‍यवाद करना, भगवान का आशीर्वाद पाना, अंग्रेजी के अक्षर सीखना, समय पर स्‍कूल आना व प्रार्थना में जाना, शरीर के अंग, गणित की संख्‍या व सप्‍ताह के दिन जानना। कविताओं की शब्‍द रचना व शब्‍दावली एकदम बनावटी किस्‍म की है। लगता है इन किताबों के चुनने वालों के आसपास या तो बच्‍चे हैं नहीं या उन्‍होंने कभी बच्‍चों के साथ काम नहीं किया जिस वजह से उन्‍हें यह भी नहीं पता कि बच्‍चों की रूचि जानवरों, पौधों, पक्षियों, आवाजों, खेलों आदि में जबरदस्‍त होती है और वे उनसे जुड़ी कविताओं को रस ले लेकर गाते भी हैं और लंबी-लंबी कविताएं ऐसे याद करते हैं जैसे उनके बाएं हाथ का खेल हो।

यही बीमारी हिंदी की पाठ्यपुस्‍तकों को अलग तरह से ग्रसती है। जैसे कक्षा एक में कुछ अच्‍छी कविताएं तो ली गई हैं लेकिन उन कविताओं को भाषा पढ़ना-लिखना सिखाने से उतना ही दूर रखा गया है जितना कि एवरेस्‍ट की चोटी हमसे दूर है। जिन कविताओं की मदद से पढ़ना-लिखना सिखाने का काम किया गया है उनमें से ज्‍यादातर न सिर्फ खराब कविताओं के नमूने हैं बल्कि उन कविताओं में कुछ दूसरे किस्‍म के वायरस भी लगे हुए हैं जिनका जिक्र आगे आएगा। पर्यावरण अध्‍ययन की किताबों में भी कविताओं का इस्‍तेमाल उपदेश देने में किया गया है न कि आस-पास के पर्यावरण का अध्‍ययन करने में। गणित में यह ऊबाऊपन कई जगह पर चित्रों के इस्‍तेमाल के बावजूद अपने आप न समझ में आने लायक पाठों की वजह से पैदा होता है।

तीसरी बड़ी बीमारी यह है कि इन पाठ्यपुस्‍तकों में कंप्‍यूटर से बनाए गए मशीनी व घटिया तस्‍वीरों का इस्‍तेमाल किया गया है। ऐसा लगता है कि राजस्‍थान में चित्रकला और चित्र शैलियों का अकाल पड़ा हुआ है यहां ना तो हाथ से बेहतरीन चित्र बनाने वाले पाए जाते हैं और ना ही कंपयूटर की मदद से बेहतर चित्र बनाने वाले। पर्यावरण अध्‍ययन की किताबों का अध्‍ययन करने वाले की राय में तो ''इन किताबों में दिए गए चित्रों पर पर्सपेक्टिव, कैमरा एंगल, कलर पेंट, बैलेंस, अनुपात, आदि को लेकर बात करना या कहना तो बहुत दूर की कौड़ी है। बच्‍चे इनसे बेहतर चित्र बना लेते हैं। इन किताबों के चित्र तो भद्दे, भौंड़े और फूहड़ हैं।'' यही हाल बाकी किताबों में बने चित्रों का भी है। इन किताबों में दिए गए चित्रों की मदद से कैसा सौंदर्यबोध बच्‍चों में विकसित होगा इसकी कल्‍पना करके ही झुरझरी छूटती हैं। हमें याद रखना चाहिए कि राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के मुताबिक बच्‍चों में सौंदर्यबोध का विकास करना शिक्षा के व्‍यापक मकसदों में से एक है। ये किताबें उस मकसद का पलीता लगाने के कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती।

चौथी बड़ी बीमारी इन पाठ्यपुस्‍तकों की यह है कि इनके लेखकों को हिंदी सलीके से पढ़ना-लिखना नहीं आता। उन्‍हें  वाक्‍य लिखने नहीं आते। सही वर्तनी की समझ उनमें नहीं है। वाक्‍यों के ढांचों व वर्तनी की गलतियों के लिए कोई आयोग अगर बनाया जाए तो उसे इन किताबों में आई वर्तनी व वाक्‍यों की गलतियों की सूची बनाने में दिनों तो क्‍या महीनों लग जाएंगे।

इन किताबों में और भी कई किस्‍मों की आम बीमारियां हैं, जैसे ये समझने के बजाय रटंत पद्धति पर आधारित है, ये कक्षा के ज्ञान को बाहर के ज्ञान के साथ जोड़ने से या तो बचती है या फिर ऐसा करने का दिखावा करती है आदि, आदि।

अब मैं आपके सामने हर विषय की कुछ खास व बड़ी बीमारियों को पेश करूंगा। हालांकि सभी को आपके सामने पेश कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा।

सबसे पहले हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्‍तकों की बात करते हैं। इसमें कई तरह की बीमारियों के वायरस हैं उनमें से कुछ को आपके सामने रखूंगा। पहला है बिना समझे वर्णमाला रट कर पढ़ना सिखाने का, दूसरा है, सड़ी-गली जाति व्‍यवस्‍था को महिमामंडित करने का, तीसरा है, युद्धोन्‍माद को बढ़ावा देने का, चौथा है स्‍वच्‍छता अभियान से आक्रांत होने का।

पूरी दुनिया में जहां पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए समझ कर सिखाने के तरीकों पर जोर दिया जा रहा है, ये किताबें समझने का मुखौटा लगा कर उसके पीछे रट कर भाषा सिखाने की वर्ण पद्धति को इस्‍तेमाल कर रही है। पहली कक्षा की किताब इस तरह से बनाई गई है कि वह मशहूर शिक्षाविद कृष्‍ण कुमार की बात को सार्थक करती नजर आती है कि ''बच्‍चे निरर्थक ढंग से पढ़ने को ही पढ़ने का लक्ष्‍य समझ लें और अर्थ ग्रहण करने की उनकी इच्‍छा कुंद हो जाए।''

यहां दूसरा ये किताबें संविधान में दिखाए गए बराबरी के सपने को सामने रखने के बजाय हमारे समाज की सड़ी-गली जाति व्यवस्था को कक्षा एक के बच्चों के सामने इस तरह रखती है कि वही सबसे बेहतर चीज है। कक्षा एक की किताब से कुछ ऐसे उदाहरण आपके सामने रखता हूं, जिन्हें देखकर आप समझ सकते हैं कि वर्णमाला ज्ञान के नाम पर इन किताबों में दरअसल कौनसा आदर्श समाज बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है।
1.     य - यज्ञ ऋषि जी करते रहते, सदा भले की बातें करते (हिन्दी-1, पृ. 50)
2.     ध - धनुष बाण से शोभा पाते, शूरवीर वो ही कहलाते (हिन्दी-1, पृ. 54)
3.     ऋ - ऋषि हमेशा ज्ञान बताते, सच की राह पर कदम बढाते (हिन्दी-1, पृ. 80)
4.     क्ष - क्षत्रिय युद्ध में जाते हैं, दुश्मन को मार भगाते हैं (हिन्दी-1, पृ. 80)
5.     त्र - त्रिशूल होता बड़ा भयंकर, धारण करते हैं शिव शंकर (हिन्दी-1, पृ. 80)
6.     ज्ञ - ज्ञानी देते सबको ज्ञान, इनका करते सब सम्मान (हिन्दी-1, पृ. 80)
7.     ण - बाण कभी ना हाथ में रखना, संभाल कर तरकश में रखना (हिन्दी-1, पृ. 73)
किताबों में दी गई तस्वीर में एक चोटीधारी व्यक्ति, छालपत्रों पर पुरानी कलम से कुछ लिख रहा है। कालखंड और व्यक्ति की वर्णगत पहचान, दोनों को ही समझना मुश्किल नहीं है। इस प्रकार ज्ञान के सार्वभौम आधुनिक अर्थ को उलटते हुए उसे अध्यात्मिक-सामुदायिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया है तथा ऊपर उद्धृत सभी पंक्तियां - एक भी पंक्ति भूतकाल में नहीं है। शूरवीर वो हीकहलाते हैं जो धनुष बाण धारण करते हैं, ऋषि हमेशाज्ञान बताते हैं और क्षत्रिय आज भी युद्ध में जाकर दुश्मन कोमार भगाते हैं (बल मेरा)। यह किताबें पोंगापंथी समाज की तस्वीर बच्चे के सामने रखती हैं। पहली कक्षा में शुरू हुआ क्षत्रिय युद्ध में जाते हैंका दर्शन सातवीं कक्षा में अपने अंजाम तक पहुंच जाता है जब कक्षा 7 की किताब यह बताती है कि लव कुश में क्षत्रिय के सभी गुण विद्यमान थे। इस तरह से जो जातिगत पूर्वाग्रह हमारे समाज की रग-रग में बसे हैं, ये किताबों उनसे टकराने के बजाए उनको खूब सारा खाद पानी देती चलती है। इस आधार पर आप आगे चल कर किसी को भी जातिगत पहचान के आधार पर कंजूस, गंदा या कामचोर या कट्टर तक घोषित कर सकते हैं। इसी तरह पहली कक्षा में दिए गए कई शब्द बच्चों के लिए न सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि हिंसा की वाहक जातिवादी व सांमती संस्कृति को बढ़ावा भी देते हैं।

हिंदी की किताबें तीसरी बड़ी व खतरनाक किस्म की बीमारी से भी ग्रस्त है जिसका नाम है - युद्धोन्माद व सैन्यवाद। किताब बनाने वालों पर युद्ध का पागलपन इतना छाया हैकि वे कक्षा एक में ली गई एक सरल सी उपदेशात्मक कविता को भी चित्र लगा कर युद्धोन्माद में इस्तेमाल कर लेते हैं। कविता इस तरह से है - कौन करेगा देश की सेवा हम भाई हम, कौन चलेगा सच्चा रास्ता, हम भाई हम, कौन बोलेगा मीठी भाषा, हम भाई हम, कौन बनेगा अच्छा बच्चा, हम भाई हम। पहला चित्र शीर्षक के साथ है जय जवान जय किसान शीर्षक के अनुरूप इसमें दोनों दिख रहे हैं पर तस्वीर में सैनिक की केन्द्रीय स्थिति लग रही है और बच्चे, शिक्षक और किसान तीनों उसका सैल्‍यूट ठोंकते नजर आते हैं। 
पहले चित्र से आपको कोई गलतफहमी बच गई हो तो दूसरा चित्र उसके एकदम दूर कर देता है। उसमें कुछ बच्चे सैनिक की वेशभूषा में परेड करते दिख रहे हैं। सभी बच्चे लड़के हैं। यहां प्रसंगांतर होगा पर बताना जरूरी है कि आठवीं कक्षा की किताब में, पृ. 95 पर स्वच्छता की प्रतिज्ञा लेते बच्चों की तस्वीर छपी है और संयोग है कि उसमें सभी लडकियां हैं, कुछ के हाथ में झाडू भी है। बेशक सेना पर सारे देशवासियों को गर्व होना चाहिए लेकिन पहली कक्षा के बच्चों को देश प्रेम/ देश सेवा का अर्थ सैनिक बनने से जोड़कर दिखाना यह दिखाता है कि इसके संकलक निर्माता सैन्य राष्ट्रवाद से ग्रस्त हैं। इसके साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि देश के बाकी सारे नागरिक भी अलग-अलग तरह से देशप्रेमी या देश सेवक हो सकते हैं।

हिन्दी की किताबों की चौथी बड़ी बीमारी इनका स्वच्छता से ग्रस्त नहीं बल्कि आक्रांत होना है। पहली किताब में सबसे पहले पाठ से भी पूर्व दो पृष्ठों पर आठ कविताएं हैं। इनमें से तीन उदाहरण के लिए प्रस्तुत है,  1. आँख में अंजन, दांत में मंजन, नितकर, नितकर, नितकर,  कान में तिनका,  नाक में उंगली, मतकर, मतकर, मतकर । 2. कोमल-कोमल सुन्दर होंठ, लगाने न दो इन पर चोट, अब आई मंजन की बारी, दांतों को न लगे बीमारी। 3. बात सुनना ध्यान लगाकर, भैया दोनों कान लगाकर, साफ सफाई इनकी कर लो, आदत अच्छी मन में धर लो। कविताएं स्वच्छता की आदत बच्चों में विकसित करने के लिए जोड़ी गई हैं। यह राज्य द्वारा चलाए जा रहे स्वच्छता अभियान से प्रेरित हैं। यदि स्वच्छता पर केन्द्रित कुल रचनाओं को जोड़ा जाए तो कहा जा सकता है कि ये पाठ्यपुस्तकें स्वच्छता अभियान से प्रेरित नहीं वरन आक्रान्त हैं। पहली से आठवीं तक की किताबों में बारह पाठ पूर्णत: और पांच पाठ अंशत: स्वच्छता की शिक्षा के लिए जोड़े गए हैं। और वह तब जब पर्यावरण अध्ययन की किताबें स्वच्छता के उपदेश से पहले ही अंटी पड़ी हैं। आप देख सकतें हैं कि यह उस वर्ग की सनक भी है जो खुद तो जाति व्‍यवस्‍था की आड़ में सफाई का काम एक जाति को सौंप कर खुद गंदगी फैलाने में मशगूल रहता है, लेकिन बाकी दुनिया को सफाई का उपदेश देता रहता है।  

पांचवी व एक और बड़ी बीमारी इन किताबों की यह है कि ये किताबें समाज में औरतों की दूसरे दर्जे की भूमिका को लगातार मजबूत करती व बढ़ावा देती चलती है। इसके कुछ उदाहरण पहले दिए जा चुके हैं। यहां मैं सिर्फ एक उदाहरण दूंगा कि यह कितनी गहरी धंसी हुई है कि न सिर्फ किताबों के पाठों में चित्रों में बल्कि व्‍याकरण तक में इसकी छाया दिखती है। जैसे कक्षा दो की किताब के पाठ 11 – शेर व चूहा के साथ दिए गए अभ्‍यास में कहा गया है कि, ''जैसे आऊंगा से आऊंगी बना। इसी तरह आप भी नीचे दिए शब्‍दों से नए शब्‍द बनाएं, खाऊंगा, चलूंगा, नाचूंगा, . . . .'' इस तरीके से बच्‍चों के सामने छुपे तौर पर यह रखा जा रहा है कि क्रियाएं तो पुरूषवाचक ही होती है और स्‍त्रीवाचक क्रियाएं उनकी मदद से ही बनती है।

हिंदी के साथ-साथ ही मैं अंग्रेजी भाषा की किताबों के बारे में संक्षेप में अपनी बात रखूंगा। हिंदी की ही तरह ये किताबें वर्णमाला पद्धति पर आधारित हैं। इनका मानना है कि बिना अक्षर ज्ञान के पाठक नहीं बना जा सकता। सो ये अक्षर के मौखि‍क व लिखित अभ्‍यासों की बच्‍चों के सिर पर जम कर बमबारी करती हैं और यह लगभग तय कर देती है कि इनको पढ़ने के बाद अंग्रेजी पढ़ कर समझना चाहे आए या न आए लेकिन अंग्रेजी से नफरत जरूर हो जाए। यह बात पहले भी की जा चुकी है कि उपदेश देने की बीमारी इनमें भी घर किए हुए है। पहली कक्षा की किताब में राजस्‍थान का संदर्भ अंग्रेजी की किताबों में से इस तरह से गायब है जैसे गधे के सिर से सींग। अंग्रेजी सीखना वैसे भी हमारे लिए एक परदेशी भाषा होने की वजह से मुश्किल होता है। इन किताबों में इस मुश्किल को और बढ़ाने के लिए अंग्रेजी शब्‍दों के हिंदी समानार्थी ऐसे शब्‍द दिए गए हैं जिन्‍हें समझना तो दूर बोलने में ही नानी व दादी सब याद आ जाएं। 7 से 8 साल की उम्र में कक्षा 3 में पढ़ने वाले बच्‍चों की किताब में दिए अंग्रेजी शब्‍दों के कुछ हिंदी अनुवाद पर जरा नजर डालिए – पराक्रम, शक्‍त‍ि‍, प्रतिध्‍वनि, धरोहर, अभ्‍यारण्‍य, उपलक्ष्‍य, मध्‍य रात्रि, मंद पवन, षडयंत्र आदि। इसी के साथ कक्षा एक में ऐसे शब्‍दों को लिया गया है कि लगता है लेखक बच्‍चों को कक्षा एक में ही अंतर्राष्‍ट्रीय बना कर मानेंगे। वे बच्‍चों को इग्‍लू, यॉच, क्‍वि‍ल, वायलिन आदि पढ़वाना चाहते हैं। यह भी लगता है कि अंग्रेजी की किताब में हिंदी की भी ऐसी परीक्षा हो रही हो जिसका मकसद ज्‍यादा से ज्‍यादा बच्‍चों को फेल करके स्‍कूलों से बाहर धकेलने और खाली पड़े स्‍कूलों को बंद करने की बुनियाद तैयार करनी हो। कक्षा 3 की किताब में साहित्‍य तो बड़ी मुश्किल से मिलता है उसमें ज्‍यादा पाठ उपदेशात्‍मक तथा सरकारी समस्‍याओं के बोझ से इस कदर लदे फंदे हैं मानो सभी समस्‍याओं का हल उन्‍हें बच्‍चों की किताबों में ठूंसने से मिलने वाला हो। और सबसे बड़ी बात अंग्रेजी सिखाते वक्‍त यह माना गया है कि राजस्‍थान के सभी बच्‍चे हिंदी जानते-समझते हैं। आप अंग्रेजी की किताब में बहुभाषी राजस्‍थान की कोई भाषा तलाश कर देखिए आपको नाकों चने चबाने पड़ जाएंगे। अब चने राजस्‍थान का इतना मशहूर भोजन है कि आपको नाक से चनों को चबाने का अभ्‍यास तो होगा ही, यही मान कर लेखकों ने बच्‍चों व आपको यह काम सौंपा है।

अब हम थोड़ी बात गणित की किताबों की करेंगे। राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 गणित शिक्षण के सबसे अहम मकसद के तौर पर बच्‍चों के सोचने समझने के तरीके का गणितीयकरण करने को बताती है। और यह काम करने के लिए कई किस्‍म की गणितीय प्रक्रियाओं को काम में लेना सुझाती है, जैसे, औपचारिक समस्‍या समाधान, मात्रा का अंदाज, पैटर्न का इस्‍तेमाल तथा पैटर्न बनाना, दृश्‍यीकरण तथा प्रस्‍तुतीकरण, अवधारणाओं के बीच संबंध जोड़ना, व्‍यवस्थित तरीके से तर्क करना, गणितीय संप्रेषण आदि। वे यह भी सुझाती है कि इन प्रक्रियाओं को काम में लेते वक्‍त किसी सवाल या प्रक्रिया को एक से ज्‍यादा तरीकों से सिखाया जाना चाहिए, गणनविधि रटवाने के बजाय अवधारणात्‍मक समझ विकसित की जानी चाहिए।

इन किताबों में गणित सिखाने की प्रमुख पद्धति को हम प्रदर्शन, दर्शन तथा कंठस्‍थीकरण पद्धति कह सकते हैं। कक्षा एक में संख्‍याएं सिखाते वक्‍त इनमें पन्‍ने के पन्‍ने संख्‍याओं से भर दिए गए हैं। बच्‍चों से यह उम्‍मीद की गई है कि उन पन्‍नों के दर्शन करें और उन्‍हें निगल लें। जब उनसे अध्‍यापक या कोई अधिकारी कहें तब उसे उगल दें। इसमें किसी भी किस्‍म की गड़बड़ बरदाश्‍त नहीं की जाएगी। इसे आप सीखने की मालगोदाम पद्धति भी कह सकते हैं। इसी तरह पहाड़े बनाते वक्‍त भी ये किताबें पैटर्न निकालने व पहचानने में बच्‍चों की मदद नहीं करतीं बल्कि यह मानती है कि बच्‍चे इसे दर्शन से पहचान लेंगे और अपने आप काम में लेने लगेंगे।

ये किताबें शायद यह भी मानती है कि सीखी हुई चीज का दृश्‍यीकरण व प्रस्तुतीकरण फालतू की चीज है और बच्‍चों को इसमें वक्‍त बरबाद नहीं करना चाहिए। इसलिए किताब में इस बात के लिए या तो जगह ही नहीं छोड़ती और गलती से कहीं जगह छोड़ भी दी हो तो वह इतनी कम होती है कि कोई बच्‍चा भूल के भी इन प्रक्रियाओं को इस्‍तेमाल करने की हिमाकत न कर बैठे।

कई जगहों पर जब गणित में सवालों को हल करने की अलग-अलग कार्यनीतियों पर काम किया जा रहा हो तब गणित की ये किताबें रोजमर्रा के जीवन में काम ली जाने वाली गणितीय कार्यनीतियों को नीची नजर से देखती है और ऐसे बच्‍चों को रट कर सवालों को हल करने के तरीके बताती है। उदाहरण के लिए कक्षा 3 की किताब में 7 रूपए की 6 कापियां खरीदने वाले सवाल में पहाड़ों की बजाय जोड़-जोड़ कर हिसाब लगाने वाली रितु को दिशु झिड़क कर कहती है कि तुझे पहाड़े नहीं आते क्‍या ? ले मैं तुझे पहाड़े बनाना सिखाती हूं। लेखक भूल जाते हैं कि एक ही संख्‍या को बार-बार जोड़ कर हिसाब लगाना गुणा करने का पहला कदम है।

गणित की किताबों को लिखने वालों को कक्षा 3 के स्‍तर की गणि‍त भी आती है या नहीं इस बारे में आप किताबें देख कर संदेह में पड़ सकते हैं। कक्षा 3 में 97 को 12 से गुणा करते वक्‍त उन्‍हें नतीजे में 1 दहाई व 4 इकाई मिलती है। बाकी 16 की संख्‍या उन्‍हें ऐसी मिलती है जिसे वे इन दोनों के बीच में ठूंस देते है, जिसके बारे में उन्‍हें नहीं पता कि वह इकाई है या दहाई। आपको पता हो तो आप पोस्‍ट कार्ड लिख उन्‍हें लिख कर बता दें। एसएमएस कर दें या मेल कर दें। आप उन्‍हें सुझा करते हैं कि वे एक बार फिर से प्राथमिक विद्यालय में दाखिला ले लें। आपको बुरा लग सकता है लेकिन मेरा मानना है कि इन किताबों को लिखने वालों को सिर्फ इकाई का इकाई से गुणा करना आता है। लेकिन वे यह नहीं जानते कि इकाई को इकाई से गुणा करने पर क्‍या मिलता है इसलिए किताब में कहीं भी नहीं लिखते कि गुणनफल की इकाई कौनसी है। इस बात से तो बिल्‍कुल ही अनजान हैं कि दहाई को दहाई से गुणा करने पर कौनसी इकाई मिलेगी, इकाई की इकाई या दहाई की इकाई या सैकड़े की इकाई । अब आप उनसे यह मत पूछ बैठिएगा कि दहाई को सैकड़े से गुणा करने पर गुणनफल की इकाई कौनसी होगी। स्‍थानीय मान यानी जगह की कीमत की अवधारणा प्राथमिक स्‍तर की एक बुनियादी अवधारणा है जिसके बिना संख्‍या की समझ ठीक से नहीं बन सकती है और ये किताबें गुणा सिखाते वक्‍त स्‍थानीय मान का इस्‍तेमाल करने से इस कदर बचती है जैसे वो गणित की अवधारणा न हो कर डेंगू या चिकनगुनिया का मच्‍छर हो जिसके छूते ही किताब लिखने वालों के बीमार हो जाने का खतरा हो।

गणित की इन किताबों में सवालों के जवाब किसी प्रक्रिया से नहीं बल्कि जादू के जोर से प्रगट हो जाते हैं। उन्‍हें समझने के लिए बच्‍चों या आपके पास दिव्‍य दृष्‍ट‍ि होनी जरूरी है। 544 के बाद कौनसी संख्‍या आएगी या 15 लड्डुओं को तीन थालियों में बांटे तो हरेक थाली में कितने लड्डू आएंगे, आदि, सवाल पढते ही इनके जवाब झपाके की तरह आपके दिमाग में रोशन होने चाहिए, ऐसा इन किताबों को लिखने वालों का मानना है। सो ऐसा ही किताबों के पन्‍नों में नजर आता है। कई जगहों पर ये किताबें यह संदेश देती है कि गणित के सवालों के जवाब  किसी गणितीय प्रक्रिया से नहीं मिलते।

गणित के बारे में आखरी बात यह है कि इन किताबों में जबरदस्‍ती वैदिक गणित को ठूंसा गया है, जिसमें तेज गति से गणना करने के कुछ टोने-टोटकों के अलावा कुछ नहीं है। जो वैसे भी आज के वक्‍त कंप्‍यूटर व मोबाइल के आने के बाद निर‍र्थक सा है। वैदिक गणित एक अनजानी भाषा में तेज गति से गणना करने के कुछ टोने-टोटके सिखाने से ज्‍यादा कुछ नहीं। ना तो वेदों का विषय गणित है और ना ही इस गणित के वेदों में मिलने का कोई प्रमाण अब तक तो क्‍या जब किताब लिखी थी और पहली बार छपी थी उस वक्‍त भी नहीं था।

गणित की ये किताबें ना तो गणित की समझ को विकसित करने में कामयाब हैं और ना ही गणनाओं में कुशल बना पाने में।

आखिरी हिस्‍से में, मैं पर्यावरण अध्‍ययन की किताबों के बारे में अपनी बात रखूंगा। यह बात तो पहले ही आ चुकी है कि ये किताबें स्‍वचछता की बीमारी से पीड़ि‍त तो है ही इसके साथ ही लैंगिक भेदभाव से भी बुरी तरह ग्रसित है। इनमें औरतों का चित्रण कपड़े धोते हुए, नर्स, मजदूरी करते हुए, बर्तन साफ करते हुए, खाना बनाते हुए, सिर पर पानी भर कर लाते हुए किया गया है जबकि तकनीकी कामों में, खेलों में महिलाएं नदारद हैं। दिखावे के लिए एक-दो जगहों पर कुछ महिलाओं का जिक्र भर कर दिया गया है। इस लिहाज से ये किताबें मर्दवादी नजरिए को और मजबूत करने में मदद करती है।

पर्यावरण अध्‍ययन की एक बड़ी दुविधा यह होती है कि बच्‍चों में क्षमताएं/दक्षताएं विकसित की जाएं या उन पर सूचनाओं की बमबारी की जाए। आप शीर्षकों को देख कर यह वहम पाल सकते हैं कि ये बच्‍चों को सक्रिय तौर पर भागीदार बनाने की कोशिश करती है, जैसे, सोचिए व चर्चा कीजिए, सोचिए और लिखिए, इसे भी करिए, तालिका देख कर बताइए। लेकिन इन नामों को रख देने भर से पर्यावरण अध्‍ययन के ज्ञान में क्रमबद्धता व संगति नहीं आ जाती। ये किताबें सूचनाओं व आग्रहों से भरी पड़ी हैं। ये सूचनाओं के बम ऐसे शब्‍दों में फेंकती है कि बच्‍चे तो बच्‍चे बड़े भी घायल हो जाएं। जरा सुनिए – शून्‍यवाद, माध्‍यमिक सिद्धांत, वैशेषिक सूत्र, हो गए ना आप धराशाई। जाहिर है कि इन्‍हें बड़े भी नहीं समझ सकते तो बच्‍चे क्‍या समझेंगे। बचचों के पास एक ही तरीका बचेगा कि वे इन्‍हें बिना समझे रट कर परीक्षा में उगल दें। पर्यावरण अध्‍ययन की किताबों को गहराई से देखने वाले व्‍यक्‍ति सुझाते हैं कि बेहतर होगा कि इन किताबों को शिक्षाशास्‍त्रीय व मनोवैज्ञानिक आधारों पर जांचा ही न जाए कयोंकि ये उसके आधार पर तो बनी ही नहीं है। इनमें कदम कदम पर लेखकों के मालगोदाम में रखी जानकारियां उफन-उफन कर पतीले से बाहर आती रहती है। एक दो उदाहरण लेते हैं। जैसे- ये किताबें बताती है कि ज्‍यादा गर्मी से वाष्‍पीकरण होता है और वाष्‍पीकरण के कारण ही कपड़े सूखते हैं। लेखक भूल जाते हैं कि दो तरह का वाष्‍पीकरण होता है एक तो क्‍वथनांक पर और दूसरा क्‍वथनांक से कम ताप पर। और दूसरे में ताप के अलावा दूसरे तत्‍व भी निर्धारक होते हैं। जैसे सर्दियों में 15 से 20 डिग्री के तापमान पर भी कपड़े सूख जाते हैं जबकि बारिश में 25 से 30 डिग्री तापमान होने पर भी कपड़ों को सूखने में सर्दी के दिनों से ज्‍यादा वक्‍त लगात है। इसकी वजह हवा में मौजूद आर्द्रता की मात्रा तथा आर्द्रता ग्रहण करने की सामर्थ्‍य होती है।

ऐसे ही किताबें कहती है कि पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है। लेखक भूल जाते हैं कि पानी का बहना ऊंचाई से नहीं दाब से तय होता है। इसी तरह किताबें बताती है कि अमुक अमुक वस्‍तु हल्‍की होने की वजह से तैरती है। लेखक यह भूल जाते हैं कि तैरने में मामला घनत्‍व का होता है तभी तो इतना भारी जहाज मजे से तैरता रहता है और छोटी सी कील डूब जाती है।

ये किताबें हमारे देश के बहुसांस्‍कृतिक व बहुभाषिक विरासत को किताबों से बाहर रखने की कोशिश  में  अपनी जान लड़ा देती है। यह बात पाठ्यपुस्‍तक बनाने वाली समिति के गठन से शुरू हो जाती है। कक्षा 3 से 5 तक की किताबें बनाने वाले समूह के 26 सदस्‍यों में से एक भी मुस्लिम, सिख व इसाई नहीं है। कक्षा तीन के 20 पाठों में आए 46 पात्रों व व्‍यक्‍तियों के नामों में से एक गुरमीत को छोड़ कर कोई भी नाम इन तीनों समुदायों में से नहीं है। जब नामों को भी झाड़ पोंछ व निचोड़ कर बाहर कर दिया गया हो तो किताबों के विषय वस्‍तु में इन समुदायों से संबंधित चीजों की कितनी नुमाइंदगी होगी यह अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। यह बात और साफ हो जाती है जब आप कक्षा 3 से 5 तक की किताबों में बहुसंख्‍यक समुदाय के भी एक खास वर्ग से जुड़े प्रतीकों की कभी वजह से तो ज्‍यादातर बेवजह भरमार पाते हैं, जैसे कृष्‍ण, गाय, राणा प्रताप, मंदिर में हाथ जोड़ना, कमल पर विराजी सरस्‍वती, महात्‍मा जी के आगे नतमस्‍तक, पतंजलि का अष्‍टांग योग, ऋषि चरक, ऋषि सुश्रुत, ऋषि‍ कणाद, स्‍वामी विवेकानंद, सावरकर आदि। इसमें आपको आदिवासी, जनजातियां भी गायब सी ही नजर आएंगी। आप साफ देख सकते हैं कि ये किताबें बहुसंख्‍यक वर्ग की नुमाइंदगी भी ठीक से कर पाने में नाकाम है, तो हाशिए पर जीने वाले समूहों, अल्‍पसंख्‍यकों की नुमाइंदगी व उनका समावेशीकरण तो बहुत दूर की बात है। जैसे-जैसे आप बड़ी कक्षाओं की किताबों को देखते हैं यह बात और ज्‍यादा साफ होती जाती है। आपको इस बात से हैरत ही हो सकती है कि कि इतने सारे ऋषि कक्षा 3 से 5 के बच्‍चों की कक्षाओं में अपने आस-पास के अध्‍ययन में कहां से चले आ रहे हैं। एक खास तबके की इतनी सारी मिथकीय कथाओं को पर्यावरण अध्‍ययन में शामिल करने की वजह अपने आस-पास के अध्‍ययन के बजाय मतारोपण के अलावा क्‍या हो सकती है, जिसमें बच्‍चों को अपने आस-पास का वैज्ञानिक तरीके से अध्‍ययन करने के बजाय मिथकीय या बहुत पुराने किस्‍से कहानियों को याद करने में व्‍यस्‍त रखा जाए ताकि कहीं वे आस-पास का अध्‍ययन करने की क्षमताएं विकसित न कर लें। आखिर अपने आपको व आस पास को बदलने की शुरूआत अपने आस पास को समझने से ही तो होती है।   

पर्यावरण अध्‍ययन की किताबें वैज्ञानिक नजरिये का विकास करने की व आस पास को समझने की शुरूआत कर पाने के लिहाज से नाकाम हैं। लगता है कि इनका मकसद यह है भी नहीं। इसी तरह गणित की किताबें गणित शिक्षण के सबसे अहमतरीन मकसद गणितीय चिंतन के तौर-तरीकों को विकसित करने में नाकाम है। भाषा की किताबें पढ़ने में रूचि पैदा करने तथा सीखने के लिए अर्थ समझ कर पढ़ना सिखाने के लिहाज से नहीं बनाई गई हैं। उन्‍हें देख कर तो यह लगता है कि वे युद्धोन्‍माद को बढ़ावा देने, औरतों की समाज में कमतरी को बनाए रखने व मजबूत करने आदि के लिए बनाई गई है। उनका साहित्‍य में रूचि पैदा करने का मकसद तो दूर-दूर तक नहीं दिखता। इसलिए इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि ये किताबें बच्‍चों को गणितीय व वैज्ञानिक समझ से महरूम रखेंगी तथा पढ़ कर समझने व सीखने में रूचि पैदा करने की राह में रोड़े अटकाएगी।

आप सभी को यह लग रहा होगा कि क्‍या इन किताबों में कोई भी अच्‍छाई नहीं है। मेरी नजर में इनमें अच्‍छाइयों की राइयों के दानों की तुलना में बुराइयों के पहाड़ के पहाड़ खड़े है। लेकिन आपको मेरी कही किसी भी बात पर आंख मूंद कर भरोसा करने की कोई जरूरत नहीं है। आप खुद इन किताबों को गौर से पढ़ि‍ए। अपनी राय बनाइए। इन पर किए गए अलग-अलग लोगों के कामों को पढ़ि‍ए। उनकी राय पर विचार करिए। फिर अपनी राय दीजिए। भले ही आप इन में कही जा रही बातों से सहमत हों या असहमत हों। यह निहायत ही अफसोस की ही बात है कि आज भी हमारे ज्‍यादातर स्‍कूलों में बच्‍चों व शिक्षकों के लिए ज्ञान का एकमात्र स्रोत पाठ्यपुस्‍तक ही है। इसलिए भी इन पाठ्यपुस्‍तकों में रह गई भयंकर चूकें कई गुना हो कर बच्‍चों में आज और कल नजर आएंगी।

अगर आप आज इन पर नहीं सोचेंगे और नहीं बोलेंगे तो हमारे स्‍कूलों से जो पीढ़ि‍यां निकलेंगी उसके पास प्रमाण पत्र तो किसी न किसी तरह हो ही जायेंगे, लेकिन विषयों व उसके जरिए दुनिया की बनने वाली समझ नहीं होगी और आप साल दर साल हर बड़ी कक्षा के अध्‍यापक से, उद्योगजगत से यही सुनेंगे पिछली कक्षाओं व विश्‍वविद्यालयों में इन बच्‍चों को कुछ नहीं सिखाया गया और एक शिक्षक के नाते हमारे व आपके लिए इससे बुरी बात और क्‍या हो सकती है कि कोई यह कहे कि आपने तो इन बच्‍चों को इतने साल स्‍कूल में रखा और सिखाया कुछ नहीं। 

शुक्रिया।  

रवि कांत

(20.10.16 को टोडा राय सिंह में राजस्‍थान शिक्षक संघ(शेेखावत) के सम्‍मेलन में पेश किया गया आलेेख) 

Thursday, 28 July 2016

पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा

विषय विज्ञान
शिक्षा में पाठ्यपुस्तकों की भूमिका
 शिक्षा  में पाठ्यचर्या की योजना बनाने की प्रक्रिया एक वृहद कार्यक्रम है। एक प्रचलित  विश्वास यह है कि अच्छी पुस्तकें पाठ्यचर्या निर्माण का मुख्य क्षेत्र है। यही कारण है कि हम अक्सर देखते हैं कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा में जरूरी परिवर्तन हेतु मात्र पाठ्यपुस्तकों को बदलकर सरकारी विकास की गति को तेज करने का प्रयास करती है।
 पाठ्य पुस्तको में यह सुधार करते समय दावा यह भी किया जाता है कि ये  एनसीएफ़ 2005 और आरटीई 2009 के अनुसार बालक को केंद्र में रखकर लिखी गई  हैं, जबकि  पाठ्य पुस्तकों को बेहतर मानने के पीछे हमारे आधार यह हो सकते हैं कि उन्हें सावधानी पूर्वक लिखा गया हो, पेशेवरसम्पादन कर जांचा गया हो, साथ ही वह बच्चों को ना सिर्फ तथ्यात्मक जानकारी देती हो बल्कि उन्हें संवाद के पर्याप्त मौके देती हों। यह बेहद जरुरी है कि पाठ्यपुस्तकों को तकनीकी शब्दावली और उनकी परिभाषाओं से भरा विश्वकोश जैसा बनाने से बचा जाए और इसके बजाय शिक्षक को अवधारणाओं की समझ पर केंद्रित करने की आजादी दी जाये।
तेज़ गति से चलने वाले कक्षा शिक्षण, गृह कार्य के बोझ और प्राइवेट ट्यूशन रूपी त्रिआयामी तनाव से बच्चों को मुक्त करने के लिए जरूरी है कि पाठ्यपुस्तकों में अवधारणाओं के विस्तार, गतिविधियों, चिंतन और अभ्यास के ऐसे मौके हों जो सोचने को बढ़ावा दें जिससे शिक्षण शाब्दिक अर्थ तक ही सीमित ना रहे। 

पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण क्यों ?
एक सवाल यह उठता है कि जब पाठ्यपुस्तकों को शिक्षण का सिर्फ एक साधन माना जाता है और स्वयं एसआईईआरटी यह आग्रह करती है कि पाठ्यक्रम को पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित न रखा जाए तो भला हम इन पाठ्यपुस्तकों को इतना महत्व क्यों दें और इनका विश्लेषण भला क्यों करें?
इस सवाल का जवाब देने से पहले अगर हम यह जाँचें  कि पाठ्यपुस्तक का शिक्षण में इस्तेमाल किस तरह हो रहा है तो थोड़ा स्थिति स्पष्ट हो सकेगी।
यह पाठ्यपुस्तकें राज्य के सभी सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों को मुफ्त उपलब्ध कराई जाती हैं।  राज्य के अधिकांश विद्यालयों में विद्यार्थियों और यहां तक कि शिक्षकों के लिए भी यह पाठ्यक्रम से जुड़ा एक मात्र संसाधन होती हैं। इन पाठ्यपुस्तकों में जो पाठ दिए गए होते हैं वे पाठ्यक्रम को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करते हैं।  किसी विषय के घटक को पढ़ाने की योजना बनाते समय शिक्षक को पाठ अनुसार विषयवस्तु तैयार मिल जाती है। सूचनाएं एक संतुलित व क्रोनोलॉजिकल तरीके से क्रमबद्ध करके प्रस्तुत की जाती है।
इसके साथ ही पाठ्यपुस्तको में शिक्षण प्रक्रिया की भी विस्तृत रूपरेखा दी गई होती है जो शिक्षक को सुझाती हैं कि क्या कब किया जाना चाहिए। प्रत्येक चरण स्पष्ट रूप से दिया जाता है।
 पाठ्यपुस्तकें एक संपूर्ण कार्यक्रम को प्रस्तुत करती हैं जिसका शिक्षक और विद्यार्थी ना सिर्फ अक्षरश: पालन करते हैं बल्कि देखने में यह आता है कि वे इस पर आवश्यकता से अधिक निर्भर हो जाते हैं तथा किसी अन्य सामग्री का कक्षा में इस्तेमाल ही नहीं करते। विद्यालयों में इन पाठ्यपुस्तकों को निर्देशिका की बजाय मैंडेट के तौर पर लागू कर दिया जाता है जिससे ना तो शिक्षक को ना ही विद्यार्थी को मॉडिफाई/ चेंज या जोड़ने/ एलिमिनेट करने की आजादी होती है। हालांकि इस तथ्य पर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं परंतु शायद ही कोई शिक्षक पाठ्यपुस्तकों से इतर कुछ आलेखों का इस्तेमाल करते हों।  शिक्षकों के पास अपनी जानकारी को अपडेट करने के लिए चर्चा के मंच या पेशेवर लोगों से बातचीत के मौके भी उपलब्ध नहीं हैं।  इन परिस्थितियों में पाठ्यपुस्तकों का महत्व बहुत बढ़ जाता है और हम इन्हें सिर्फ एक साधन माकर अनदेखा नहीं कर सकते।
 राज्य के मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के अधिकांश बच्चे जो सभी प्रकार के समुदाय से आते हैं इन पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से सरकारी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। इन बच्चों के अभिभावक अपेक्षा रखते हैं कि विद्यालयों में शिक्षा मुहैया कराई जाए कि उनके बच्चे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र निर्णय ले सकें और आधुनिक प्रतिस्पर्धा के युग में मजबूती से अपनी जगह बना सकें इसके लिए जरूरी है कि बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो और समता व न्याय के प्रति सरोकार हो तथा संविधान के आदर्श मूल्यों में विश्वास हो।

विज्ञान का पाठ्यक्रम और विषय वस्तु:
यहां कक्षा 8 की पाठयपुस्तक को आधार बनाकर समीक्षा की गई है। यदि कक्षा 8 के पाठ्यक्रम को देखें तो पाठ्यपुस्तक में पाठ 6- पौधो में जनन पर बात करता है, लेकिन यह जन्तुओं में जनन पर खामोश है। यह विषय-वस्तु पाठ्यक्रम और किताबों में न रखे जाने के पीछे लेखक मंडली की क्या विवशता थी यह तो हम नहीं जान सकते लेकिन इस बात से सभी सहमत होंगे कि कक्षा 8 में विद्यार्थी 13-14 वर्ष की उम्र के हो जाते हैं और उनमें कई शारीरिक बदलाव आ रहे होते हैं जिन के प्रति उन के मन में जिज्ञासाएं और कुंठाएं होती हैं। चूंकि एक बडी संख्या में विद्यार्थी ऐसे परिवारों से आते हैं जहां परम्परागत रूढीवादिता के माहौल में ऐसे विषयों पर संवाद नहीं होता, यह बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थी इस के बारे में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करें। किशोरावस्था और जनन संबंधी आधारभूत जानकारी दिया जाना मनोवैज्ञानिक और साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
पेज 60 पर पौधों मे जनन पाठ में एक बाक्स में लिखा कथन देखें- 

‘‘इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है चाहे वो पौधा हो या जन्तु इस लिए अपनी जाती का अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रत्येक सजीव अपने समान संतती पैदा करता है।’’ विज्ञान प्रमाणीकरण पर आधारित विषय है, यदि इस कथन पर तर्क करें तो यह प्रतीत होता है कि प्रजनन अपनी मृत्यु के भय से अस्तित्व बचाने के लिए की जाने वाली कूटनीतिक प्रक्रिया है। लेखकों से यह सवाल है क्या सभी सजीव सोच-समझकर इसी उद्देश्य से यह प्रक्रिया करते हैं या ‘‘यह नैसर्गिक प्रक्रिया है जो प्रजातियों को उनका अस्तित्व बनाये रखने में मदद करती है।’’
पेज 78 पर - ‘‘इन्हें भी जाने”


“रक्त परिसंचरण की खोज विलियम हार्वे (1518-1658) नामक एक चिकित्सक ने की थी। उन्हें इस कार्य हेतु सम्मानित किया गया और परिसंचारी (सर्कुलेटर ) कहा गया।’’  वेबसाईट

पर विलियम हार्वे की जीवनी में उनके घोर विरोधी जीनरिओलन द्वारा उन्हे घूमन्तू नीम हकीमों के लिए उपयोग किए जाने वाले अपशब्द ‘‘सर्कुलेटर’’ कह कर उन का तिरस्कार करने का जिक्र है। 1628 में हार्वे द्वारा दी गई रक्त परिसंचरण की अवधारणा को 1661 में मारसेलोमालपीघी द्वारा रक्त कोशिकाओं की खोज के बाद ही मान्यता मिल सकी थी। इस बीच उनका घोर विरोध होता रहा। पाठ में लेखक ने ‘‘सर्कुलेटर’’ शब्द की वास्तविक पृष्ठभूमि समझे बिना उसे ‘‘सम्मानित किया’’ के साथ जोड दिया है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है व नैतिक रूप से निंदनीय है।

पाठ- जैव विविधता के पाठ की प्रस्तावना भारत के भू भाग को परिभाषित करते हुए विष्णु पुराण के एक श्लोक से होती है जिसे मान लें तो जैव विविधता से भरे भारतीय भू भाग लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार छूट जाते हैं, लेकिन  पाठ इसे स्पष्ट नहीं करता और विद्यार्थियों को एक गलत अवधारणा दे जाता है । 



इस ही पाठ में (पेज 47 पर )आगे एक सवाल है- 




यहां कोई चर्चा नहीं होती है; उदाहरण नहीं लिए जाते; तुलना या विश्लेषण नहीं होता और सीधे ही अगले वाक्य मेंजवाब हाजिर- "हां, जलवायु का प्रभाव वहां के जीव जंतु, पेड़ पौधों एवं सूक्ष्म जीवों की प्रजातियों पर भी पड़ता है।" पाठ्य पुस्तक में दिए गए इस सवाल जवाब का उद्देश्य क्या व औचित्य क्या है? यह बिल्कुल एक कुंजी लिखने जैसा अंदाज़ है।

जैव- विविधता की अवधारणा को बहुत हल्के में लिया गया है और उसे स्पष्ट किए बिना ही बहुत जल्दबाजी में विलुप्तता  की ओर बढ़ जाते हैं। पाठ्यपुस्तक में हमारे आस-पास में पाए जाने वाले पेड़-पौधों और जीव जंतुओं की एक छोटी सी सूची बनाने का स्थान है, यहां विद्यार्थियों के लिए यदि अपने विद्यालय के परिसर से घर तक के रास्ते में कुछ खोजने, अवलोकन करने, आंकड़े एकत्र करने (कुल प्रजातियाँ, प्रत्येक की संख्या), पत्तियां, फूल, तितलियां, कीट, कृमि, पक्षियों के पंख आदि का संग्रह करने के मौके दिए जाते और फिर क्षेत्र में पाए जाने वाली विविधिता पर बात की जाती तो अवधारणात्मक समझ बेहतर बन सकती थी।

अब पाठ्य पुस्तक में दी गई परिभाषा (पेज 48- पैरा 1; और पुनः पेज 58- हमने क्या सीखा) पर नजर डालें- 



"किसी क्षेत्र विशेष में पाए जाने वाले पेड़-पौधों व जीव जंतुओं की प्रजातियां को क्षेत्र की जैव विविधता कहते हैं।" इस परिभाषा से कई आपत्तियां हैं-
1.       सिर्फ पेड-पौधे और जीव-जन्तु ही जैव विविधता नहीं दर्शाते, इस में समस्त प्राणधारी (सजीव) शामिल हैं, सुक्ष्मजीव व कीट भी।
2.       प्रजातियों को नहीं वरन् सजीवों की प्रजातियों में पाई जाने वाली विविधता और विभिन्नता (प्रजातियों के प्रकार और बहुरूपता) को जैव विविधता कहते हैं।
3.       यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि विविधता का उच्च स्तर वांछनीय और महत्वपूर्ण है।

जैव विविधता का महत्व स्पष्ट किए बिना इसके विलुप्त होने के कारण और बचाव के उपाय पर बात करना तर्क संगत नहीं लगता।


पाठ के अन्त में ‘‘यह भी जाने’’शीर्षक से दिए बाक्स में राजस्थान में गायों की जैव विविधता के नाम पर 4 राजस्थानी गायों की नस्लों के बारे में जानकारी दी गई है। बिना चित्र के गायों के शारीरिक बनावट के बारे में विवरण दीया गया है, जैसे- ‘‘इस वंश का शरीर गठीला, कमर सीधी, ढालू पुठ्ठे, मजबूत व छोटी टांगे, चौडा सीना, विकसित थुआ, लटकता हुआ मतान, धसा हुआ ललाट, मस्तक के बाहरी हिस्सा निकलकर आगे की ओर निकले नोकदार सींग, छोटे व नुकीले कान और एडी तक पहुंचने वाले काले झंवर की मध्यम लम्बाई की पूंछ इस नस्ल की प्रमुख पहचान है।’’ यहां सभी विशेषण तुलना संबंधी हैं, बिना देखे और तुलना किए यह तय कर पाना मुश्किल होगा के यह किस गाय के लक्षण है। 

दूसरे नस्लों की इस सूची का जैव विविधता की अवधारणा से कैसे संबंध बनता है यह पाठ में कहीं स्पष्ट नहीं होता। अर्थात पाठ्यपुस्तक जैव विविधता के विभिन्न स्तरों पर आवश्यक समझ बनाने की कमी छोड देती है, जिससे विद्यार्थी विभिन्न जलवायु प्रदेशों में पाई जाने वाली प्रजातियों, एक ही क्षेत्र विशेष में पाई जाने वाली प्रजातियों और किसी प्रजाति विशेष में पाई जाने वाली विभिन्न किस्मों से मिलकर बनने वाली जैव विविधता के सम्पूर्ण चित्र नहीं देख पाते।

तीसरे, गायों की नस्लों पर बात करने के बाद यदि विद्यार्थियों के परिवेश से सजीवों की किसी अन्य प्रजाति की नस्लों जैसे- गेंहु, मक्का, बाजरा, भेड, बकरी ऊंट आदि पर जानकारी एकत्र करने और उनकी विशेषताओं और महत्व पर चर्चा की गुंजाइश सृजित की जाती तो इस पाठ पर उनकी समझ सुदृढ होती।

पाठ -8: हमारा स्वास्थ्य, बीमारियां और बचाव पर है। पूरा पाठ किसी शब्दकोष की तरह बीमारियों के नाम, कारण, लक्षण व बचाव की जानकारी की सूची की तरह दिया गया है। विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सृजन का कोई अवसर नहीं है। पाठ के अभ्यास कार्य में कुछ क्रियात्मक कार्य दिए गये है लेकिन उन पर कक्षा में संवाद और किए गये कार्य का अवधारणाओं से संबंध स्थापित करने का माध्यम इस पाठ में नदारद है।

पाठ -17: पर्यावरण में पेज 184185 पर पर्यावरण और भारतीय दृष्टिकोण शीर्षक से जो विवरण दिया गया है:



यह विवरण भारतीय संस्कृति होने का दावा करता है लेकिन पूरी तरह से एक धर्म विशेष की मान्यताओं को आधार बना कर लिख गया है। पेज 185- ‘‘स्नान के बाद पौधे व वृक्ष पर जल चढाते हैं, सूर्य की पूजा की जाती है .........’’ इसी तरह ‘‘हमारी संस्कृति में जीवों को देवी देवताओं के वाहन के रूप में प्रमुख स्थान दिया गया है। नागपंचमी पर नाग की पूजा .....’’ पेज 186- ‘‘पिपल, वटवृक्ष, आंवला, तुलसी आदी की पूजा की जाती है।’’ पूजा एक खास धर्म की प्रार्थना पद्धति है, ऐसा विवरण देते समय हम अन्य धर्मों की अनदेखी कर रहे होते हैं। जो कि हमारी सांस्कृतिक बहुलता और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के खिलाफ जाता हुआ प्रतीत होता है।

विज्ञान शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संबन्धित दक्षताओं और प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना है, जबकि उपरोक्त विवरण इन सब को ताक पर रख कर परम्पराओं को महिमा मंडित करता है। 

गतिविधि: 

एन सी एफ 2005 में इस बात पर जोर दिया गया है कि विज्ञान की अवधारणाओं को मुख्यतः गतिविधियों व प्रयोगों द्वारा ही समझाना चाहिए, बच्चों को ऐसी गतिविधियों में व्यस्त रखना चाहिए कि वह सूक्ष्म अवलोकन वर्गीकरण निष्कर्ष प्रतिपादन एवं निष्कर्षों का उपयोग करने आदि क्रियाकलापों के माध्यम से स्थाई ज्ञान का सृजन कर सकें।  छोटे-छोटे रोचक क्रियाकलापों को एक श्रृंखला के रुप में प्रस्तुत करने से विद्यार्थी की चिंतन प्रक्रिया सुदृढ़ होती है और वह बहुआयामी चिंतन करने में समर्थ बनते हैं।  ऐसे क्रियाकलाप के द्वारा विद्यार्थी स्वयं कर के सीख सकते हैं अतः इससे सीखना तेजी से होता है तथा इसमें विद्यार्थी समझ के साथ चलते हैं। गतिविधि आधारित शिक्षण में सभी विद्यार्थियों के लिए सीखने का मौका होता है उनमें एक होड़ भी होती है, जल्दी से कार्य करने की चुनौती भी सामने होती है, विद्यार्थी की रचनात्मकता और जिज्ञासा संपोषित होती है, सूचनाओं को रटने की उबाऊ क्रिया से मुक्ति मिलती है और किसी मध्यस्थता के बिना ही विद्यार्थी सीखता है। इस तरह से उचित एवं पर्याप्त गतिविधियों के माध्यम से किया गया विज्ञान शिक्षण विद्यार्थियों को स्वतंत्र निर्णय लेने की दक्षता हासिल करने मे मदद करता है।

आइए पाठ्यपुस्तकों में दी गई कुछ गतिविधियों को देखिए: कृषि प्रबंधन पर आधारित पहले पाठ में सिर्फ एक गतिविधि दी गई है, बीजों को पानी में डालकर पहचान करने कीइसके अलावा पूरा पाठ सूचनात्मक है। आगे भी पाठ  3, 5, 7, 8, 12, 13, 15, 16, 17 और 18 इसी परिपाटी पर लिखे गए हैं।

धातु और अधातु पर आधारित दूसरे पाठ में काफी गतिविधियां दी गई हैं लेकिन इस पाठ में शिक्षा शास्त्रीय नजरिए से काफी खामियां दिखाई देती है उदाहरण के लिए:

धातु और अधातु को सिर्फ चमक के आधार पर वर्गीकृत कर परिभाषित कर दिया गया है। इसके बाद पाठ में कहीं भी इन दोनों के अन्य गुणों की तुलना करने का मौका नहीं मिलता वरन यह दो शाखाएं अलग-अलग चलती है: धातुओं के भौतिक गुण और अधातुओं के भौतिक गुण; धातुओं के रासायनिक गुण और अधातुओं के रासायनिक गुण; धातुओं के उपयोग और अधातुओं के उपयोग इस प्रकार तथ्यात्मक रूप से ठीक होने के बावजूद यह ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया से अछूता रह जाता है।


विज्ञान विषय की प्रकृति को अगर समझें तो यह अवधारणाओं के निर्माण, परीक्षण, सबूत जुटाने व विश्लेषण करने की प्रक्रिया से संचालित होता है (activity before concept) लेकिन पूरे पाठ में पहले अवधारणा परिभाषित कर दी गई है और उसके बाद उस पर आधारित गतिविधि दे दी गई है जो कि मुख्यतः दी गयी अवधारणा को ही सत्यापित करने का प्रयास है और इस प्रकार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया के लिए स्थान ही नहीं है। धातु और अधातु में वस्तुओं को वर्गीकृत करने की आवश्यकता क्या है? इसके रासायनिक आधार क्या है? आदि पर चर्चा और विश्लेषण के मौके भी इस पाठ में नहीं दिए गए हैं।

इस तरह ही यह पूरी तरह से शिक्षक पर निर्भर करता है कि वह पाठ्यपुस्तक के तरीके से शिक्षण करावे या अवधारणात्मक समझ के लिए शुरू से हर गुण यथा-  रंग, चमक, कठोरता, ध्वनिकता, ऊष्मा चालकता, विद्युत चालकता आदि के बारे में बताते समय धातु और अधातु की तुलना करता चले या दोनों को कक्षा में अलग-अलग deal करें। 


मूल्यांकन– पूरी पाठ्यपुस्तक में पाठ के बीच में कोई सवाल नहीं है। पाठ समाप्त होने पर अभ्यास प्रश्न दिये गये हैं। प्रश्न सीधे पाठ में से पूछे गये हैं। विद्यार्थियों के लिए विश्लेषण / चिंतन / समस्या-समाधान के मौके नहीं देते। यह समस्या पूरी पाठ्यपुस्तक के साथ दिखाई देती है। जो कि शिक्षा शास्त्रीय नजरिये से चिंताजनक है। एन.सी.एफ. 2005 की मूल भावना के बिलकुल विपरीत जाकर शिक्षा को रटन्त प्रणाली व पास बुकों की ओर धकेलती है।

समेकन:
एन.सी.एफ. 2005 के 5 नीति निर्देशक सिद्धांतों की कसौटी पर देखे- (एन.सी.एफ. 2005, अध्याय 1, पेज 5)
1. ज्ञान को विद्यालय के बाहरी जीवन से जोडना: ये पुस्तकें विद्यार्थी के व्यक्गित जीवन के अनुभवों से जोड़ने में विफल रहती हैं। (उदाहरण के लिए जैव विविधता के पाठ की समीक्षा)
2. पढ़ाई को रटन्त प्रणाली से मुक्त कराना: पूरी किताब किसी शब्द कोष की तरह परिभाषाओं और जानकारीयों से भरी पडी है। सवालों के सीधे जवाब हैं, तर्क और विश्लेषण की कोई गुंजाइश नहीं है। विद्यार्थी के लिए सीखने का अर्थ होगा रट कर सही जवाब लिख देना।
3. पाठ्यचर्या पाठ्यपुस्तक केन्द्रित ना होकर बच्चों के चहुॅंमुखी विकास के अवसर मुहैया कराए: पूरी पाठ्यपुस्तक विषय वस्तु संबंधी तथ्यों पर ही केन्द्रित है किसी भी स्तर पर शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच संवाद का स्थान नहीं देती, ना ही बालकों की क्षमताओं को विकसित करने के अभ्यास को स्थान देती है। एक बडा उदाहरण पुस्तकों में जन्तुओं के जनन व किशोरावस्थ संबंधी पाठ का अभाव होना है। स्वास्थ्य संबंधी पाठ भी सूचनाओं का संकल्न मात्र है।
4. परिक्षा को लचीला बनाना व कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना: पाठ्यपुस्तक में अधिकतर पाठों में बच्चों लिए कर के सीखने के अवसर नदारद हैं (पाठ 1, 3, 5, 7, 8, 12, 13, 15, 16, 17) ऐसे में यह जाहिर सी बात है कि न परिक्षा लचीली हो सकेगी ना ही गतिविधि आधारित।
5. एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्द्रीय चिंताएं समाहित हों: इसके लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी प्रश्न करना, तर्क करना, किसी बात के पीछे प्रभाव ढूंढना, उन्हें सत्यापित करना आदि क्षमताओं को विकसित करे। लेकिन ये पाठ्यपुस्तकें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दूर उन्हें परम्परागत रूढ़िवादी विश्वास की ओर ले जाती हैं। (उदाहरण: जनन की नैसर्गिक प्रक्रियापर्यावरण संरक्षण के उपाय आदि)
भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है जो किसी खास धर्म की प्रार्थना पद्धति को आरोपित नहीं करता, इसके विपरीत पाठ्यपुस्तकें एक धर्म विशेष की पद्धति और परम्पराओं का महिमा मंडन करती हैं।
इस तरह हम यह कह सकते हैं पाठ्यपुस्तकें प्राक्कथन के पहले पैराग्राफ में किए गये इस दावे पर कि वे ‘‘एन.सी.एफ. 2005 और आर.टी.ई. 2009 के अनुरूप बनाई गई हैं।’’ खरी नहीं उतरती हैं। पाठ्यपुस्तकें जानकारियों का संकलन मात्र हैं और उनमें भी कई स्थानों पर तथ्यात्मक खामियां छूट गई हैं जिनकी सत्यता जाँचने के लिए कोई संदर्भ भी नहीं दिये गए हैं। ऐसे में आवश्यक है कि शिक्षक पाठ्यपुस्तक को समुचित सामग्री से परिपूर्ण करें तथा रचनात्मक चिंतन और समस्या समाधान आधारित गतिविधि कराएं और विस्तृत सवाल पूछें जिससे अवधारणात्मक समझ बने और साथ ही विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दक्षताओं का विकास हो।