Thursday, 28 July 2016

पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा

विषय विज्ञान
शिक्षा में पाठ्यपुस्तकों की भूमिका
 शिक्षा  में पाठ्यचर्या की योजना बनाने की प्रक्रिया एक वृहद कार्यक्रम है। एक प्रचलित  विश्वास यह है कि अच्छी पुस्तकें पाठ्यचर्या निर्माण का मुख्य क्षेत्र है। यही कारण है कि हम अक्सर देखते हैं कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा में जरूरी परिवर्तन हेतु मात्र पाठ्यपुस्तकों को बदलकर सरकारी विकास की गति को तेज करने का प्रयास करती है।
 पाठ्य पुस्तको में यह सुधार करते समय दावा यह भी किया जाता है कि ये  एनसीएफ़ 2005 और आरटीई 2009 के अनुसार बालक को केंद्र में रखकर लिखी गई  हैं, जबकि  पाठ्य पुस्तकों को बेहतर मानने के पीछे हमारे आधार यह हो सकते हैं कि उन्हें सावधानी पूर्वक लिखा गया हो, पेशेवरसम्पादन कर जांचा गया हो, साथ ही वह बच्चों को ना सिर्फ तथ्यात्मक जानकारी देती हो बल्कि उन्हें संवाद के पर्याप्त मौके देती हों। यह बेहद जरुरी है कि पाठ्यपुस्तकों को तकनीकी शब्दावली और उनकी परिभाषाओं से भरा विश्वकोश जैसा बनाने से बचा जाए और इसके बजाय शिक्षक को अवधारणाओं की समझ पर केंद्रित करने की आजादी दी जाये।
तेज़ गति से चलने वाले कक्षा शिक्षण, गृह कार्य के बोझ और प्राइवेट ट्यूशन रूपी त्रिआयामी तनाव से बच्चों को मुक्त करने के लिए जरूरी है कि पाठ्यपुस्तकों में अवधारणाओं के विस्तार, गतिविधियों, चिंतन और अभ्यास के ऐसे मौके हों जो सोचने को बढ़ावा दें जिससे शिक्षण शाब्दिक अर्थ तक ही सीमित ना रहे। 

पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण क्यों ?
एक सवाल यह उठता है कि जब पाठ्यपुस्तकों को शिक्षण का सिर्फ एक साधन माना जाता है और स्वयं एसआईईआरटी यह आग्रह करती है कि पाठ्यक्रम को पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित न रखा जाए तो भला हम इन पाठ्यपुस्तकों को इतना महत्व क्यों दें और इनका विश्लेषण भला क्यों करें?
इस सवाल का जवाब देने से पहले अगर हम यह जाँचें  कि पाठ्यपुस्तक का शिक्षण में इस्तेमाल किस तरह हो रहा है तो थोड़ा स्थिति स्पष्ट हो सकेगी।
यह पाठ्यपुस्तकें राज्य के सभी सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों को मुफ्त उपलब्ध कराई जाती हैं।  राज्य के अधिकांश विद्यालयों में विद्यार्थियों और यहां तक कि शिक्षकों के लिए भी यह पाठ्यक्रम से जुड़ा एक मात्र संसाधन होती हैं। इन पाठ्यपुस्तकों में जो पाठ दिए गए होते हैं वे पाठ्यक्रम को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करते हैं।  किसी विषय के घटक को पढ़ाने की योजना बनाते समय शिक्षक को पाठ अनुसार विषयवस्तु तैयार मिल जाती है। सूचनाएं एक संतुलित व क्रोनोलॉजिकल तरीके से क्रमबद्ध करके प्रस्तुत की जाती है।
इसके साथ ही पाठ्यपुस्तको में शिक्षण प्रक्रिया की भी विस्तृत रूपरेखा दी गई होती है जो शिक्षक को सुझाती हैं कि क्या कब किया जाना चाहिए। प्रत्येक चरण स्पष्ट रूप से दिया जाता है।
 पाठ्यपुस्तकें एक संपूर्ण कार्यक्रम को प्रस्तुत करती हैं जिसका शिक्षक और विद्यार्थी ना सिर्फ अक्षरश: पालन करते हैं बल्कि देखने में यह आता है कि वे इस पर आवश्यकता से अधिक निर्भर हो जाते हैं तथा किसी अन्य सामग्री का कक्षा में इस्तेमाल ही नहीं करते। विद्यालयों में इन पाठ्यपुस्तकों को निर्देशिका की बजाय मैंडेट के तौर पर लागू कर दिया जाता है जिससे ना तो शिक्षक को ना ही विद्यार्थी को मॉडिफाई/ चेंज या जोड़ने/ एलिमिनेट करने की आजादी होती है। हालांकि इस तथ्य पर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं परंतु शायद ही कोई शिक्षक पाठ्यपुस्तकों से इतर कुछ आलेखों का इस्तेमाल करते हों।  शिक्षकों के पास अपनी जानकारी को अपडेट करने के लिए चर्चा के मंच या पेशेवर लोगों से बातचीत के मौके भी उपलब्ध नहीं हैं।  इन परिस्थितियों में पाठ्यपुस्तकों का महत्व बहुत बढ़ जाता है और हम इन्हें सिर्फ एक साधन माकर अनदेखा नहीं कर सकते।
 राज्य के मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के अधिकांश बच्चे जो सभी प्रकार के समुदाय से आते हैं इन पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से सरकारी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। इन बच्चों के अभिभावक अपेक्षा रखते हैं कि विद्यालयों में शिक्षा मुहैया कराई जाए कि उनके बच्चे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र निर्णय ले सकें और आधुनिक प्रतिस्पर्धा के युग में मजबूती से अपनी जगह बना सकें इसके लिए जरूरी है कि बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो और समता व न्याय के प्रति सरोकार हो तथा संविधान के आदर्श मूल्यों में विश्वास हो।

विज्ञान का पाठ्यक्रम और विषय वस्तु:
यहां कक्षा 8 की पाठयपुस्तक को आधार बनाकर समीक्षा की गई है। यदि कक्षा 8 के पाठ्यक्रम को देखें तो पाठ्यपुस्तक में पाठ 6- पौधो में जनन पर बात करता है, लेकिन यह जन्तुओं में जनन पर खामोश है। यह विषय-वस्तु पाठ्यक्रम और किताबों में न रखे जाने के पीछे लेखक मंडली की क्या विवशता थी यह तो हम नहीं जान सकते लेकिन इस बात से सभी सहमत होंगे कि कक्षा 8 में विद्यार्थी 13-14 वर्ष की उम्र के हो जाते हैं और उनमें कई शारीरिक बदलाव आ रहे होते हैं जिन के प्रति उन के मन में जिज्ञासाएं और कुंठाएं होती हैं। चूंकि एक बडी संख्या में विद्यार्थी ऐसे परिवारों से आते हैं जहां परम्परागत रूढीवादिता के माहौल में ऐसे विषयों पर संवाद नहीं होता, यह बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थी इस के बारे में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करें। किशोरावस्था और जनन संबंधी आधारभूत जानकारी दिया जाना मनोवैज्ञानिक और साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
पेज 60 पर पौधों मे जनन पाठ में एक बाक्स में लिखा कथन देखें- 

‘‘इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है चाहे वो पौधा हो या जन्तु इस लिए अपनी जाती का अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रत्येक सजीव अपने समान संतती पैदा करता है।’’ विज्ञान प्रमाणीकरण पर आधारित विषय है, यदि इस कथन पर तर्क करें तो यह प्रतीत होता है कि प्रजनन अपनी मृत्यु के भय से अस्तित्व बचाने के लिए की जाने वाली कूटनीतिक प्रक्रिया है। लेखकों से यह सवाल है क्या सभी सजीव सोच-समझकर इसी उद्देश्य से यह प्रक्रिया करते हैं या ‘‘यह नैसर्गिक प्रक्रिया है जो प्रजातियों को उनका अस्तित्व बनाये रखने में मदद करती है।’’
पेज 78 पर - ‘‘इन्हें भी जाने”


“रक्त परिसंचरण की खोज विलियम हार्वे (1518-1658) नामक एक चिकित्सक ने की थी। उन्हें इस कार्य हेतु सम्मानित किया गया और परिसंचारी (सर्कुलेटर ) कहा गया।’’  वेबसाईट

पर विलियम हार्वे की जीवनी में उनके घोर विरोधी जीनरिओलन द्वारा उन्हे घूमन्तू नीम हकीमों के लिए उपयोग किए जाने वाले अपशब्द ‘‘सर्कुलेटर’’ कह कर उन का तिरस्कार करने का जिक्र है। 1628 में हार्वे द्वारा दी गई रक्त परिसंचरण की अवधारणा को 1661 में मारसेलोमालपीघी द्वारा रक्त कोशिकाओं की खोज के बाद ही मान्यता मिल सकी थी। इस बीच उनका घोर विरोध होता रहा। पाठ में लेखक ने ‘‘सर्कुलेटर’’ शब्द की वास्तविक पृष्ठभूमि समझे बिना उसे ‘‘सम्मानित किया’’ के साथ जोड दिया है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है व नैतिक रूप से निंदनीय है।

पाठ- जैव विविधता के पाठ की प्रस्तावना भारत के भू भाग को परिभाषित करते हुए विष्णु पुराण के एक श्लोक से होती है जिसे मान लें तो जैव विविधता से भरे भारतीय भू भाग लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार छूट जाते हैं, लेकिन  पाठ इसे स्पष्ट नहीं करता और विद्यार्थियों को एक गलत अवधारणा दे जाता है । 



इस ही पाठ में (पेज 47 पर )आगे एक सवाल है- 




यहां कोई चर्चा नहीं होती है; उदाहरण नहीं लिए जाते; तुलना या विश्लेषण नहीं होता और सीधे ही अगले वाक्य मेंजवाब हाजिर- "हां, जलवायु का प्रभाव वहां के जीव जंतु, पेड़ पौधों एवं सूक्ष्म जीवों की प्रजातियों पर भी पड़ता है।" पाठ्य पुस्तक में दिए गए इस सवाल जवाब का उद्देश्य क्या व औचित्य क्या है? यह बिल्कुल एक कुंजी लिखने जैसा अंदाज़ है।

जैव- विविधता की अवधारणा को बहुत हल्के में लिया गया है और उसे स्पष्ट किए बिना ही बहुत जल्दबाजी में विलुप्तता  की ओर बढ़ जाते हैं। पाठ्यपुस्तक में हमारे आस-पास में पाए जाने वाले पेड़-पौधों और जीव जंतुओं की एक छोटी सी सूची बनाने का स्थान है, यहां विद्यार्थियों के लिए यदि अपने विद्यालय के परिसर से घर तक के रास्ते में कुछ खोजने, अवलोकन करने, आंकड़े एकत्र करने (कुल प्रजातियाँ, प्रत्येक की संख्या), पत्तियां, फूल, तितलियां, कीट, कृमि, पक्षियों के पंख आदि का संग्रह करने के मौके दिए जाते और फिर क्षेत्र में पाए जाने वाली विविधिता पर बात की जाती तो अवधारणात्मक समझ बेहतर बन सकती थी।

अब पाठ्य पुस्तक में दी गई परिभाषा (पेज 48- पैरा 1; और पुनः पेज 58- हमने क्या सीखा) पर नजर डालें- 



"किसी क्षेत्र विशेष में पाए जाने वाले पेड़-पौधों व जीव जंतुओं की प्रजातियां को क्षेत्र की जैव विविधता कहते हैं।" इस परिभाषा से कई आपत्तियां हैं-
1.       सिर्फ पेड-पौधे और जीव-जन्तु ही जैव विविधता नहीं दर्शाते, इस में समस्त प्राणधारी (सजीव) शामिल हैं, सुक्ष्मजीव व कीट भी।
2.       प्रजातियों को नहीं वरन् सजीवों की प्रजातियों में पाई जाने वाली विविधता और विभिन्नता (प्रजातियों के प्रकार और बहुरूपता) को जैव विविधता कहते हैं।
3.       यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि विविधता का उच्च स्तर वांछनीय और महत्वपूर्ण है।

जैव विविधता का महत्व स्पष्ट किए बिना इसके विलुप्त होने के कारण और बचाव के उपाय पर बात करना तर्क संगत नहीं लगता।


पाठ के अन्त में ‘‘यह भी जाने’’शीर्षक से दिए बाक्स में राजस्थान में गायों की जैव विविधता के नाम पर 4 राजस्थानी गायों की नस्लों के बारे में जानकारी दी गई है। बिना चित्र के गायों के शारीरिक बनावट के बारे में विवरण दीया गया है, जैसे- ‘‘इस वंश का शरीर गठीला, कमर सीधी, ढालू पुठ्ठे, मजबूत व छोटी टांगे, चौडा सीना, विकसित थुआ, लटकता हुआ मतान, धसा हुआ ललाट, मस्तक के बाहरी हिस्सा निकलकर आगे की ओर निकले नोकदार सींग, छोटे व नुकीले कान और एडी तक पहुंचने वाले काले झंवर की मध्यम लम्बाई की पूंछ इस नस्ल की प्रमुख पहचान है।’’ यहां सभी विशेषण तुलना संबंधी हैं, बिना देखे और तुलना किए यह तय कर पाना मुश्किल होगा के यह किस गाय के लक्षण है। 

दूसरे नस्लों की इस सूची का जैव विविधता की अवधारणा से कैसे संबंध बनता है यह पाठ में कहीं स्पष्ट नहीं होता। अर्थात पाठ्यपुस्तक जैव विविधता के विभिन्न स्तरों पर आवश्यक समझ बनाने की कमी छोड देती है, जिससे विद्यार्थी विभिन्न जलवायु प्रदेशों में पाई जाने वाली प्रजातियों, एक ही क्षेत्र विशेष में पाई जाने वाली प्रजातियों और किसी प्रजाति विशेष में पाई जाने वाली विभिन्न किस्मों से मिलकर बनने वाली जैव विविधता के सम्पूर्ण चित्र नहीं देख पाते।

तीसरे, गायों की नस्लों पर बात करने के बाद यदि विद्यार्थियों के परिवेश से सजीवों की किसी अन्य प्रजाति की नस्लों जैसे- गेंहु, मक्का, बाजरा, भेड, बकरी ऊंट आदि पर जानकारी एकत्र करने और उनकी विशेषताओं और महत्व पर चर्चा की गुंजाइश सृजित की जाती तो इस पाठ पर उनकी समझ सुदृढ होती।

पाठ -8: हमारा स्वास्थ्य, बीमारियां और बचाव पर है। पूरा पाठ किसी शब्दकोष की तरह बीमारियों के नाम, कारण, लक्षण व बचाव की जानकारी की सूची की तरह दिया गया है। विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सृजन का कोई अवसर नहीं है। पाठ के अभ्यास कार्य में कुछ क्रियात्मक कार्य दिए गये है लेकिन उन पर कक्षा में संवाद और किए गये कार्य का अवधारणाओं से संबंध स्थापित करने का माध्यम इस पाठ में नदारद है।

पाठ -17: पर्यावरण में पेज 184185 पर पर्यावरण और भारतीय दृष्टिकोण शीर्षक से जो विवरण दिया गया है:



यह विवरण भारतीय संस्कृति होने का दावा करता है लेकिन पूरी तरह से एक धर्म विशेष की मान्यताओं को आधार बना कर लिख गया है। पेज 185- ‘‘स्नान के बाद पौधे व वृक्ष पर जल चढाते हैं, सूर्य की पूजा की जाती है .........’’ इसी तरह ‘‘हमारी संस्कृति में जीवों को देवी देवताओं के वाहन के रूप में प्रमुख स्थान दिया गया है। नागपंचमी पर नाग की पूजा .....’’ पेज 186- ‘‘पिपल, वटवृक्ष, आंवला, तुलसी आदी की पूजा की जाती है।’’ पूजा एक खास धर्म की प्रार्थना पद्धति है, ऐसा विवरण देते समय हम अन्य धर्मों की अनदेखी कर रहे होते हैं। जो कि हमारी सांस्कृतिक बहुलता और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के खिलाफ जाता हुआ प्रतीत होता है।

विज्ञान शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संबन्धित दक्षताओं और प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना है, जबकि उपरोक्त विवरण इन सब को ताक पर रख कर परम्पराओं को महिमा मंडित करता है। 

गतिविधि: 

एन सी एफ 2005 में इस बात पर जोर दिया गया है कि विज्ञान की अवधारणाओं को मुख्यतः गतिविधियों व प्रयोगों द्वारा ही समझाना चाहिए, बच्चों को ऐसी गतिविधियों में व्यस्त रखना चाहिए कि वह सूक्ष्म अवलोकन वर्गीकरण निष्कर्ष प्रतिपादन एवं निष्कर्षों का उपयोग करने आदि क्रियाकलापों के माध्यम से स्थाई ज्ञान का सृजन कर सकें।  छोटे-छोटे रोचक क्रियाकलापों को एक श्रृंखला के रुप में प्रस्तुत करने से विद्यार्थी की चिंतन प्रक्रिया सुदृढ़ होती है और वह बहुआयामी चिंतन करने में समर्थ बनते हैं।  ऐसे क्रियाकलाप के द्वारा विद्यार्थी स्वयं कर के सीख सकते हैं अतः इससे सीखना तेजी से होता है तथा इसमें विद्यार्थी समझ के साथ चलते हैं। गतिविधि आधारित शिक्षण में सभी विद्यार्थियों के लिए सीखने का मौका होता है उनमें एक होड़ भी होती है, जल्दी से कार्य करने की चुनौती भी सामने होती है, विद्यार्थी की रचनात्मकता और जिज्ञासा संपोषित होती है, सूचनाओं को रटने की उबाऊ क्रिया से मुक्ति मिलती है और किसी मध्यस्थता के बिना ही विद्यार्थी सीखता है। इस तरह से उचित एवं पर्याप्त गतिविधियों के माध्यम से किया गया विज्ञान शिक्षण विद्यार्थियों को स्वतंत्र निर्णय लेने की दक्षता हासिल करने मे मदद करता है।

आइए पाठ्यपुस्तकों में दी गई कुछ गतिविधियों को देखिए: कृषि प्रबंधन पर आधारित पहले पाठ में सिर्फ एक गतिविधि दी गई है, बीजों को पानी में डालकर पहचान करने कीइसके अलावा पूरा पाठ सूचनात्मक है। आगे भी पाठ  3, 5, 7, 8, 12, 13, 15, 16, 17 और 18 इसी परिपाटी पर लिखे गए हैं।

धातु और अधातु पर आधारित दूसरे पाठ में काफी गतिविधियां दी गई हैं लेकिन इस पाठ में शिक्षा शास्त्रीय नजरिए से काफी खामियां दिखाई देती है उदाहरण के लिए:

धातु और अधातु को सिर्फ चमक के आधार पर वर्गीकृत कर परिभाषित कर दिया गया है। इसके बाद पाठ में कहीं भी इन दोनों के अन्य गुणों की तुलना करने का मौका नहीं मिलता वरन यह दो शाखाएं अलग-अलग चलती है: धातुओं के भौतिक गुण और अधातुओं के भौतिक गुण; धातुओं के रासायनिक गुण और अधातुओं के रासायनिक गुण; धातुओं के उपयोग और अधातुओं के उपयोग इस प्रकार तथ्यात्मक रूप से ठीक होने के बावजूद यह ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया से अछूता रह जाता है।


विज्ञान विषय की प्रकृति को अगर समझें तो यह अवधारणाओं के निर्माण, परीक्षण, सबूत जुटाने व विश्लेषण करने की प्रक्रिया से संचालित होता है (activity before concept) लेकिन पूरे पाठ में पहले अवधारणा परिभाषित कर दी गई है और उसके बाद उस पर आधारित गतिविधि दे दी गई है जो कि मुख्यतः दी गयी अवधारणा को ही सत्यापित करने का प्रयास है और इस प्रकार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया के लिए स्थान ही नहीं है। धातु और अधातु में वस्तुओं को वर्गीकृत करने की आवश्यकता क्या है? इसके रासायनिक आधार क्या है? आदि पर चर्चा और विश्लेषण के मौके भी इस पाठ में नहीं दिए गए हैं।

इस तरह ही यह पूरी तरह से शिक्षक पर निर्भर करता है कि वह पाठ्यपुस्तक के तरीके से शिक्षण करावे या अवधारणात्मक समझ के लिए शुरू से हर गुण यथा-  रंग, चमक, कठोरता, ध्वनिकता, ऊष्मा चालकता, विद्युत चालकता आदि के बारे में बताते समय धातु और अधातु की तुलना करता चले या दोनों को कक्षा में अलग-अलग deal करें। 


मूल्यांकन– पूरी पाठ्यपुस्तक में पाठ के बीच में कोई सवाल नहीं है। पाठ समाप्त होने पर अभ्यास प्रश्न दिये गये हैं। प्रश्न सीधे पाठ में से पूछे गये हैं। विद्यार्थियों के लिए विश्लेषण / चिंतन / समस्या-समाधान के मौके नहीं देते। यह समस्या पूरी पाठ्यपुस्तक के साथ दिखाई देती है। जो कि शिक्षा शास्त्रीय नजरिये से चिंताजनक है। एन.सी.एफ. 2005 की मूल भावना के बिलकुल विपरीत जाकर शिक्षा को रटन्त प्रणाली व पास बुकों की ओर धकेलती है।

समेकन:
एन.सी.एफ. 2005 के 5 नीति निर्देशक सिद्धांतों की कसौटी पर देखे- (एन.सी.एफ. 2005, अध्याय 1, पेज 5)
1. ज्ञान को विद्यालय के बाहरी जीवन से जोडना: ये पुस्तकें विद्यार्थी के व्यक्गित जीवन के अनुभवों से जोड़ने में विफल रहती हैं। (उदाहरण के लिए जैव विविधता के पाठ की समीक्षा)
2. पढ़ाई को रटन्त प्रणाली से मुक्त कराना: पूरी किताब किसी शब्द कोष की तरह परिभाषाओं और जानकारीयों से भरी पडी है। सवालों के सीधे जवाब हैं, तर्क और विश्लेषण की कोई गुंजाइश नहीं है। विद्यार्थी के लिए सीखने का अर्थ होगा रट कर सही जवाब लिख देना।
3. पाठ्यचर्या पाठ्यपुस्तक केन्द्रित ना होकर बच्चों के चहुॅंमुखी विकास के अवसर मुहैया कराए: पूरी पाठ्यपुस्तक विषय वस्तु संबंधी तथ्यों पर ही केन्द्रित है किसी भी स्तर पर शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच संवाद का स्थान नहीं देती, ना ही बालकों की क्षमताओं को विकसित करने के अभ्यास को स्थान देती है। एक बडा उदाहरण पुस्तकों में जन्तुओं के जनन व किशोरावस्थ संबंधी पाठ का अभाव होना है। स्वास्थ्य संबंधी पाठ भी सूचनाओं का संकल्न मात्र है।
4. परिक्षा को लचीला बनाना व कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना: पाठ्यपुस्तक में अधिकतर पाठों में बच्चों लिए कर के सीखने के अवसर नदारद हैं (पाठ 1, 3, 5, 7, 8, 12, 13, 15, 16, 17) ऐसे में यह जाहिर सी बात है कि न परिक्षा लचीली हो सकेगी ना ही गतिविधि आधारित।
5. एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्द्रीय चिंताएं समाहित हों: इसके लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी प्रश्न करना, तर्क करना, किसी बात के पीछे प्रभाव ढूंढना, उन्हें सत्यापित करना आदि क्षमताओं को विकसित करे। लेकिन ये पाठ्यपुस्तकें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दूर उन्हें परम्परागत रूढ़िवादी विश्वास की ओर ले जाती हैं। (उदाहरण: जनन की नैसर्गिक प्रक्रियापर्यावरण संरक्षण के उपाय आदि)
भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है जो किसी खास धर्म की प्रार्थना पद्धति को आरोपित नहीं करता, इसके विपरीत पाठ्यपुस्तकें एक धर्म विशेष की पद्धति और परम्पराओं का महिमा मंडन करती हैं।
इस तरह हम यह कह सकते हैं पाठ्यपुस्तकें प्राक्कथन के पहले पैराग्राफ में किए गये इस दावे पर कि वे ‘‘एन.सी.एफ. 2005 और आर.टी.ई. 2009 के अनुरूप बनाई गई हैं।’’ खरी नहीं उतरती हैं। पाठ्यपुस्तकें जानकारियों का संकलन मात्र हैं और उनमें भी कई स्थानों पर तथ्यात्मक खामियां छूट गई हैं जिनकी सत्यता जाँचने के लिए कोई संदर्भ भी नहीं दिये गए हैं। ऐसे में आवश्यक है कि शिक्षक पाठ्यपुस्तक को समुचित सामग्री से परिपूर्ण करें तथा रचनात्मक चिंतन और समस्या समाधान आधारित गतिविधि कराएं और विस्तृत सवाल पूछें जिससे अवधारणात्मक समझ बने और साथ ही विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दक्षताओं का विकास हो।